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________________ -का. १. ६ ३२] अज्ञानवादः। अवते-न ज्ञानं श्रेयः, तस्मिन् सति विरुद्धप्ररूपणायां विवादयोगतश्चित्तकालुष्याविभावतो दीर्घतरसंसारप्रवृत्तेः। यदा पुनरज्ञानमाधीयते तदा नाहंकारसंभवो नापि परस्योपरि चित्तकालुष्यभावः, ततो न बन्धसंभवः । अपि च, यः संचिन्त्य क्रियते कर्मबन्धः, स दारुणविपाकोऽत एवावश्यं वेद्यः, तस्य तीव्राध्यवसायतो निष्पन्नत्वात् । यस्तु मनोव्यापारमन्तरेण कायवाक्कमप्रवृत्तिमात्रतो विधीयते, न तत्र मनसोऽभिनिवेशस्ततो नासाववश्यं वेद्यो नापि तस्य दारुणो विपाकः। केवलमतिशुष्कसुधापकधवलितभित्तिगतरजोमल इव से कर्मसंगः स्वत एव शुभाध्यवसायपवनविक्षोभितोऽपयाति । मनसोऽभिनिवेशाभावश्चाज्ञानाभ्युपगमे समुपजायते, ज्ञाने सत्यभिनिवेशसंभवात् । तस्मादज्ञानमेव मुमुक्षुणा मुक्तिपथप्रवृत्तेनाभ्युपगन्तव्यं न ज्ञानमिति ।। ६३२. अन्यच्च, भवेयुक्तो ज्ञानस्याभ्युपगमः, यदि ज्ञानस्य निश्चयः, कतुं पार्येत । यावता स एव न पार्यते । तथाहि-सर्वेऽपि दर्शनिनः परस्परं भिन्नमेव ज्ञानं प्रतिपन्नाः, ततो न निश्चयः कतुं शक्यते 'किमिदं सम्यगुतेदम्' इति । अथ यत्सकलवस्तुस्तोमसाक्षात्कारिभगवद्वर्धमानोपदेशारहे हैं । इनका कथन है कि ज्ञान कल्याणकारी नहीं है । यह ज्ञान हो तमाम वितण्डावादोंकी सृष्टि करता है। इस ज्ञानसे ही एक वादो दूसरेके विरुद्ध तत्त्व प्ररूपण करके विवादका अखाड़ा बनाता है। वादविवादसे चित्तमें कलुषता आदि दोष होते हैं और उससे दीर्घ संसारमें भ्रमण होता है। जब इस अनर्थमूल ज्ञानको छोड़कर अज्ञानका आश्रय लेते हैं तब 'मेरा यह सिद्धान्त है, मैं तुम्हारा खण्डन करूंगा' इत्यादि ज्ञानमूलक अहंकार कभी उत्पन्न ही नहीं हो सकता। और अहंकार न होनेसे दूसरेके ऊपर कलुषता न हो सकेगी। इस तरह चित्तमें कालुष्यके न होनेसे कर्मबन्धको कभी भो सम्भावना ही नहीं है । इसी तरह, जो कार्य विचार कर जान-बूझकर किये जाते हैं उनसे दारुण फल देनेवाला कर्मबन्ध होता है, और उस कर्मबन्धका कठोर फल अवश्य ही भुगतना पड़ता है। तीव्र अध्यवसायसे अर्थात् बुद्धिपूर्वक होनेवाले कषायावेशसे जो कर्मबन्ध होता है वह अकाटय होता है, उसका फल भोगना ही पड़ता है, इस कर्मको गति टारै नांहि टरै। किन्तु जो कर्म मनके अभिप्रायके बिना ही केवल वचन और कायको प्रवृत्तिमात्रसे उपाजित किये जाते हैं, उनमें चित्तका तीवाभिनिवेश-अत्यन्त कषायवृत्ति न होनेसे उनका फल भी अवश्य ही नहीं भुगतना पड़ता, ये फल दिये बिना भी झड़ सकते हैं और यदि इसने फल भी दिया तो इनका दारुण फल नहीं होता। अज्ञानपूर्वक होनेवाला कर्मबन्ध तो जिस दीवालपर पोता गया चूना खूब सूख गया है उस शुष्क भित्तिपर आयी हुई धूलके समान है, जो थोड़ी-सी भी शुभ-अध्यवसाय रूप हवाके चलनेसे अपने ही आप झड़ जाती है। 'मनमें रागद्वेषादि रूप अभिनिवेश उत्पन्न न होने देनेका सबसे सरल उपाय है ज्ञानपूर्वक व्यापारको छोड़कर अज्ञान में ही सन्तोष करना । क्योंकि जबतक ज्ञान रहेगा तबतक वह कुछ-न-कुछ रागद्वेषादिरूप उत्पात करता रहेगा, वह कभी शान्त रहनेवाला नहीं है। अतः मोक्षके अभिलाषी मोक्षमार्गमें लगे हुए मुमुक्षुको अज्ञान ही साधक हो सकता है, ज्ञान नहीं। ३२. दूसरी बात यह है कि ज्ञान तो तब उपादेय कहा जा सकता है जब ज्ञानके स्वरूपका ठीक-ठीक निश्चय हो जाये। पर संसारमें अनेकों मत-मतान्तर हैं और जब सभी अपने तत्त्वज्ञानको सच्चा कहते हैं तब 'कौन सच्चा है ?' यही जानना सबसे कठिन कार्य क्या, असम्भव हो है। सभी दर्शनवाले जब अपनी-अपनी ढाई चावलकी खिचड़ी अलग-अलग पका रहे हैं, अपने-अपने सिद्धान्तोंमें सत्यताकी दुहाई देते हैं, तब 'यह सच्चा कि यह यही विवेक करना कठिन हो रहा है । जैन लोग जब यह कहते हैं कि-'समस्त वस्तुओंका हस्तामलकवत् साक्षात्कार करनेवाले १.-वश्यवेद्यः क., प. १, २, भ. १, २। २. -वश्यवे-भ. २ । ३. सकलसंगः भ. २ । ४. -मिति च-भ. २ । ५. पार्यते क.। ६. पार्येत आ. । ७. उत नेदमिति भ. २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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