SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शनसमुच्चये [का० १.६३०"अतर्कितोपस्थितमेव सर्व चित्रं जनानां सुखदुःखजातम् । काकस्य तालेन यथाभिघातो न बुद्धिपूर्वोऽस्ति वृथाभिमानः ॥११॥" [ आचा० २।१।१।११४ ] इत्यादि । $ ३०. 'दृष्टमेव सर्वं जातिजरामरणादिकं लोके कोकतालीयामिति । तथा च स्वतः षड्विकल्पा लब्धास्तथा नास्ति परतः कालत इत्येवमपि षड्विकल्पा लभ्यन्ते । सर्वेऽपि मिलिता द्वादश विकल्पा जीवपदेन लब्धाः । एवमजीवादिष्वपि षट्सु पदार्थेषु प्रत्येकं द्वादशद्वादश विकल्पा लभ्यन्ते । ततो द्वादशभिः सप्त गुणिताश्चतुरशीतिर्भवन्त्यक्रियावादिनां विकल्पाः। $ ३१. तथा कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं तदेषामस्तोत्यज्ञानिकाः। “ अतोऽनेकस्वरात्" [ हैम० ७२] इति मत्वर्थीय इकप्रत्ययः। अथवाऽज्ञानेन चरन्तीत्यज्ञानिकाः, असंचिन्त्यकृतकर्मबन्धवैफल्यादिप्रतिपत्तिलक्षणाः शोकल्यसात्यमुग्रिमौदपिप्पलादबादरायणजैमिनिवसुप्रभृतयः। ते हयेवं "जिस प्रकार 'काकतालीय' न्यायमें तालवृक्षसे गिरते हुए तालफलसे जुड़ते हुए कोवेकी टक्कर अकस्मात् बिना विचारे ही होती है, उसी तरह इस संसारमें सभी प्राणियोंको नाना प्रकारके सुख-दुःख अकितोपस्थित-बिना विचारे ही अपने आप ही हो जाते हैं। सुख-दुःखकी उत्पत्तिमें किसीका भी बुद्धिपूर्वक व्यापार नहीं होता। अतः इस यादृच्छिक जगत्में 'अहं करोमि-मैं करता हूँ' यह अहंकार करना व्यर्थ है। कोई किसीका कुछ भी नहीं करता, सब यों ही होता रहता है।" ३०. संसारी प्राणियोंकी उत्पत्ति बुढ़ापा तथा मरण आदि सभी काकतालीय न्यायसे अचानक-पूर्वसूचनाके बिना ही होते हैं, यह तो सबके अनुभवकी हो बात है। इस तरह 'स्वतः' की अपेक्षा छह भेद हुए। 'नास्ति परतः कालत:-परतः नहीं है कालको अपेक्षासे' इस तरह 'परतः' की अपेक्षा भी छह भंग समझना चाहिए। जिस प्रकार जीवके ये १२ भेद 'स्वतः परतः'को अपेक्षा होते हैं उसी तरह अजीवादि छहके भी बारह-बारह विकल्प समझना चाहिए। इस प्रकार सातों जीवादि पदार्थों का बारह विकल्पोंसे गुणा करने पर (७४ १२) अक्रियावादियों के चौरासी भेद हो जाते हैं। ६३१. खोटे ज्ञानको अज्ञान कहते हैं, खोटे ज्ञानवाले अज्ञानिक-अज्ञानवादी हैं । अज्ञानशब्दसे 'अतोऽनेकस्वरात्' सूत्रसे मत्वर्थीय इक प्रत्यय करनेपर अज्ञानिक शब्द सिद्ध होता है । अथवा अज्ञानपूर्वक जिनका आचरण-व्यवहार है उन्हें अज्ञानिक कहते हैं। इनका सिद्धान्त है कि बिना विचारे अज्ञानपूर्वक किया गया कर्मबन्ध विफल हो जाता है, वह दारुण दुःख नहीं देता। इत्यादि शाकल्य, सात्यमुनि, मौद, पिप्पलाद, बादरायण, जैमिनि तथा वसु आदि प्रमुख अज्ञानवादी १. दुष्ट-आ.। २. -तालीयाम्यामिति क.। -तालीयाभाविति प. १.२ ३. "हिताहितपरीक्षाविरहोऽज्ञानिकत्वम्"-सर्वार्थसि. 4। “तथा न ज्ञानमज्ञानं तद्विद्यते येषां तेऽज्ञानिनः, ते ह्यज्ञानमेव श्रेय इत्येवं वदन्ति ।"-सूत्र. श. १।१२। स्था. अभ. ४।४।१४५। "कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं तोषामस्ति ते अज्ञानिकाः ते च वादिनश्चेत्यज्ञानिकवादिनः । ते चाज्ञानमेव श्रेयः, असञ्चिन्त्यकृतकर्मबन्धवैफल्यात, तथा न ज्ञानं कस्यापि क्वचिदपि वस्तुन्यस्ति प्रमाणानामसंपूर्णवस्तुविषयत्वादित्याद्यभ्युपगमवन्तः।"--भग. अभ. ३०1१। अथवा अज्ञानेन चरन्तीति अज्ञानिकाः असञ्चिन्त्यकृतबन्धवैफल्यादिप्रतिपत्तिलक्षणाः। तथाहि ते एवमाहः-न ज्ञानं श्रेयः..." -नन्दि. मलय, पृ. २१.B। ४. ततोऽनेक-आ., क., प. १, २, भ. १। ५. "शाकल्यवाल्कलकुथुमिसात्यमुद्रिनारायणकण्ठमाध्यन्दिनमौदपप्पलादबादरायणाम्बष्टीकृदौरिकायनवसुजैमिन्यादीनामज्ञानकूदृष्टीनां सप्तषष्टिः ।"---राजवा. पृ. ५१। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy