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________________ ४५ षड्दर्शनसमुच्चये [का०८४६५६७६५६७. अथ भतचतुष्टयोप्रभवा देहे चैतन्योत्पत्तिः कथं प्रतीयताम् । इत्याशङ्क्याह पृथ्व्यादिभूतसंहत्या तथा देहपरीणतेः। ... मदशक्तिः सुराङ्गेभ्यो यद्वत्तच्चिदात्मनि ।।८४॥ ६५६८. व्याख्या-पृथिव्यादीनि पृथिव्यप्तेजोवायुलक्षणानि भूतानि तेषां संहतिः समवायः संयोग इति यावत् तैया हेतुभतया। तथा तेन प्रकारेण या देहस्य परीणतिः परिणामस्तस्याः सकाशात् चिदिति योगः। यद्वद्यथा सुराङ्गेभ्यो गुडधातक्यादिभ्यो मद्याङ्गेभ्यो मदशक्तिः उन्मादकत्वं भवति, तद्वत्तथा चित् चैतन्यमात्मनि शरीरे । अत्रात्मशब्देनानेकार्थेन शरीरमेव ज्ञातव्यं, न पुनर्जीवः । अयं भावः-भूतचतुष्टयसंबन्धाद्देहपरीणामः, ततश्च देहे चैतन्यमिति । अत्र परीणतिशब्दे घेत्रभावेऽपि बाहुलकादुपसर्गस्य दीर्घत्वं सिद्धम् । पाठान्तरं वा "पृथ्व्यादिभूतसंहत्यां तथा देहादिसंभवः।। मदशक्तिः सुराङ्गम्यो यद्वत्तद्वत्स्थितात्मता॥" पृथिव्यादिभूतसंहत्यां सत्यां तथा शब्दः पूर्वश्लोकापेक्षया समुच्चये, देहादिसंभवः । आदिशब्दाद्भभूधरादयो भूतसंयोगजा ज्ञेयाः। सुराङ्गेभ्यो यद्वन्मदशक्तिर्भवति, तद्वदभूतसंबन्धाच्छरीर आत्मता सचेतनता स्थिता व्यवस्थितेति । यदुवाच वाचस्पतिः-"पृथिव्यापस्तेजो वायुरिति तत्वानि, तत्समुदाये शरीरविषयेन्द्रियसंजी, तेभ्यश्चैतन्यम्" इति ॥४४॥ $ ५६७. अब भूतचतुष्टयसे उत्पन्न होनेवाले शरीरमें चैतन्यकी उत्पत्तिकी प्रक्रिया बताते हैं जिस तरह महुआ आदि मादक सामग्रीसे मदशक्ति उत्पन्न होती है उसी तरह पृथिवी आदि भूतोंके विशिष्ट संयोगसे देहाकार परिणमनसे शरीरमें चैतन्य उत्पन्न होता है ॥४॥ ५६८. पृथिवी जल अग्नि और वायु इन भूतोंके विशिष्ट संयोगसे भूतोंका शरीराकार रूपसे परिणमन होता है। जिस प्रकार गुड़ धातकी आदि शराबकी सामग्रीसे मादकशक्ति होती है उसी तरह शरीरमें चैतन्यशक्ति उत्पन्न हो जाती है। 'आत्मा' शब्दके अनेक अर्थ होते हैं। अतः यहां आत्मा शब्दका शरीर अर्थ ही लेना चाहिए न कि जीव । तात्पर्य यह कि पृथिवी आदि भूतचतुष्टयके विशिष्ट संयोगसे देह बनती है फिर देहमें चैतन्य उत्पन्न होता है। परीणति शब्दमें परि उपसर्गको विकल्पसे दीघ हो गया है। इस श्लोकका यह पाठान्तर भी देखा जाता हैपृथिव्यादिभूतसंहत्यां तथा देहादिसंभवः । मदशक्तिः सुराङ्गेम्यो यद्वत्तद्वत्स्थितात्मता ।।' अर्थात् पृथिवी आदि भूतोंका संयोग होनेपर देह आदि उत्पन्न होते हैं । पृथिवी पहाड़ आदि सभी पदार्थ भूतोंके संयोगसे ही उत्पन्न होते हैं। जिस प्रकार मदिराकी सामग्रीसे मदशक्ति होती है उसी तरह भतोंके विशिष्ट सम्बन्धसे शरीरमें आत्मता या सचेतनता आदि है। वाचस्पतिने कहा है"पृथिवी जल अग्नि और वायु ये चार तत्त्व हैं। इनके समुदाय-विशिष्ट संयोगसे शरीर इन्द्रिय और विषयसंज्ञक पदार्थ उत्पन्न होते हैं, उनसे चैतन्य होता है" ||४|| १. प्रभावाद्देहे आ., क.। २. तद्धेतुभूतया म.३। तया हेतुतया प. १,२। ३. परीणामः म. २ । ४. -दिभ्यो मद-भ. १। ५. घभावे -आ.। ६.-त्यां तथा भ. २। ७. -शब्दाद्धरा भ. १, २, प. १,२। ८. ताभ्यश्च -म. २। “पृथिव्यापस्तेजो वायुरिति तत्त्वानि तत्समुदाये शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञा।"-तत्त्वोप. पृ. १ | शां. भा. भामती ३।३२५४ । तत्त्वसं. पं. प. ५२० । तत्त्वार्थ श्लो. पृ. २८ । युक्त्यनुशा. टी. पृ. ७३ । न्यायकुमु. पृ. ३४१ । न्यायवि. वि. द्वि. पृ. ९३ । स्या. रत्ना. पृ. १८६ । "ततो निराकृतमेतत् -'शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञेभ्यः पृथिव्यादिभूतेभ्यश्चैतन्याभिव्यक्तिः, पिष्टोदकगुडधातक्यादिभ्यो मदशक्तिवत् ।" -प्रमेयकम. पृ. ११५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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