SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 485
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - का० २६. ९५७२] लोकायत मतम् । $ ५६९. एवं स्थिते तथोपदिशन्ति तथा दर्शयन्नाह - तस्माद्दृष्टपरित्यागाद्यददृष्टे प्रवर्तनम् । लोकस्य तद्विमूढत्वं चार्वाकाः प्रतिपेदिरे || ८५|| § ५७०. व्याख्या-यस्माद्भूतेभ्यश्चैतन्योत्पत्तिः तस्मात्कारणादृदृष्टपरित्यागात् दृष्टं प्रत्यक्षानुभूतमैहिकं ' लौकिकं यद्विषयजं सुखं तस्य परित्यागाददृष्टे परलोकसुखादौ तपश्चरणादिकष्ट - क्रियासाध्ये यत्प्रवर्तनं प्रवृत्तिः तल्लोकस्य विमूढत्वम् अज्ञानमेवेति चार्वाकाः प्रतिपेदिरे प्रतिपन्नाः । यो हि लोको विप्रतारकवचनोपन्यासत्रासित संज्ञानो हस्तगतमिहत्यं सुखं विहाय स्वर्गापवर्गसुखप्रेप्सया तपोजपध्यानहोमादौ यद्यतते, तत्र तस्याज्ञानतैव कारणमिति तन्मतोपदेशः ॥८५॥ ४५९ $ ५७१. अर्थं ये शान्तरसपूरितस्वान्ता निरुपमं शमसुखं वर्णयन्ति, तानुद्दिश्य यच्चार्वाका ब्रुवते तदाह साध्यवृत्तिनिवृत्तिभ्यां या प्रीतिर्जायते जने । निरथ सा मते तेषां धर्मः कामात्परो न हि ||८६ ॥ - $५७२ व्याख्या - साध्यं ध्यानं द्वेषा, उपादेयं हेयं च । उपादेये धर्मशुक्लध्यानयुगे हेये चातंरौद्रध्यानयुगे । अथवा साध्ये साधनीये 'कार्ये, उपादेये पुण्यकृत्ये तपःसंयमादौ, हेये च पापकृत्ये विषयसुखादिके क्रमेण वृत्तिनिवृत्तिभ्यां प्रवर्तननिवर्तनाभ्यां जने लोके या प्रीतिः मनःसुखं जायते समुत्पद्यते सा तेषां चार्वाकाणां मते 'निरर्था निःप्रयोजना निःफलातात्विकीत्यर्थः । हिर्यस्मात् धर्मः $ ५६९. इस तरह तत्त्वोंका व्याख्यान करके चार्वाक लोग जो कर्त्तव्य बताते हैं उसे ध्यान से सुनिए चार्वाक कहते हैं कि - इसलिए दृष्ट-भोगोंको छोड़कर जो लोग अदृष्ट परलोकके सुखके लिए प्रवृत्ति करते हैं वे अत्यन्त मूर्ख हैं ॥८५॥ $ ५७०. चूँकि भूतोंसे ही चैतन्य उत्पन्न होता है । अतः दृष्ट-प्रत्यक्ष सिद्ध लौकिक विषयसुखोंको छोड़कर अदृष्ट——परलोक के सुखके लिए तपश्चरण आदि कष्टकर क्रियाओं में प्रवृत्ति करना महामूढ़ता तथा अज्ञानकी पराकाष्ठा है। चार्वाक लोग सदा यही कहते हैं कि भविष्यत्की आशासे वर्तमानको छोड़ना मूर्खता है । जो लोग इन घूर्तोंके बहकावे में आकर अपने सम्यग्ज्ञानको तिलांजलि देकर सामने उपस्थित विषय भोगोंको छोड़कर स्वर्ग मोक्षके सुखकी झूठो चाहसे तप जप ध्यान होम आदि करनेका प्रयत्न करते हैं उनकी इस निरर्थक प्रवृत्तिका सबसे बड़ा कारण उनकी मूढ़ बुद्धि या बुद्धिभ्रंश ही है । यही उनके मतके उपदेशका सार है || ८५ ॥ $ ५७१. जो शान्त रससे आप्लावित हृदय होकर तप जप आदि कार्योंसे निरुपम शान्ति सुखकी प्राप्ति बताते हैं उनके प्रति चार्वाकोंका यह उपदेश है कत्तंव्य में प्रवृत्ति तथा अकर्त्तव्य से निवृत्ति होनेपर जो मनुष्यों को आत्म-सन्तोष होता है उसे चार्वाक लोग निरर्थक बताते हैं । उनके यहाँ तो कामसे बढ़कर कोई दूसरा धर्म नहीं है ॥८६॥ Jain Education International $ ५७२. साध्य ध्यान दो प्रकारका होता है- एक उपादेय, दूसरा हेय । धर्मध्यान और शुक्लध्यान उपादेय हैं तथा आर्तध्यान और रौद्रध्यान हेय । अथवा साधनीय उपादेय तप संयम आदि उपादेय कार्यों में प्रवृत्ति तथा विषय सुख आदि हेय पाप कर्मोंसे निवृत्ति करनेपर मनुष्यों को जो आत्मसुख या मनःसन्तोष होता है वह चार्वाकोंकी दृष्टिमें निरर्थक है, नाचीज है, मिथ्या है। १. - मैहलोकि भ. २ । २. तन्मते उप - म २। ३ द्वे स्वान्तरस- म. २ । ४. कार्ये पुण्यम. २ । ५. - निःफला भ. २ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy