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-का० ८३.६५६६] लोकायतमतम् ।
४५७ स्तन्मात्रम् । मात्रशब्दोऽवधारणे । इदं प्रत्यक्षं कलेवरं शरीरम् एवास्तोत्यध्याहारः, न पुनर्भूतचतुष्टयसंयोगमात्रादपरो भवान्तरयायी शुभाशुभकर्मविपाकभोक्ता काये कश्चन जीवो विद्यते। भूतचतुष्कसंयोगश्च विद्युदुद्योत इव क्षणतो दृष्टो नष्टः । तस्मात्परलोकानपेक्षया यथेच्छं पिब खाद चेत्यर्थः॥४२॥ ६५६५. अथ प्रमेयं प्रमाणं चाह-किंच,
पृथ्वी जेलं तथा तेजो वायुभूतचतुष्टयम् ।
आधारो भूमिरेतेषां मानं त्वक्षजमेव हि ॥८३॥ $ ५६६. व्याख्या-'किं च' इत्यम्युच्चये । पृथ्वी भूमिः, जलम् आपः; तेजो वह्निः, वायुः पवनः, भूतचतुष्टयम् । एतानि भूतानि चत्वारि आधारो भूमिरेतेषां भूतानामाधारोऽधिकरणं भूमिः पृथ्वो । 'चैतन्यभूमिरेतेषाम्' इति पोठे तु चतुष्टयं किविशिष्टं चैतन्यभूमिः चैतन्योत्पत्तिस्थानम्, भूतानि संभूयैकं चैतन्यं जनयन्तीत्यर्थः। एतेषां चार्वाकाणां मते 'प्रमाणभूमिरेतेषाम्' इति पाठान्तरे तु भूतचतुष्टयं प्रमाणभूमिः प्रमाणगोचरस्तात्त्विक एतेषां मैते । मानं तु प्रमाणं पुनस्क्षजमेव प्रत्यक्षमेवैकं न पुनरनुमानादिकं प्रमाणम् । हिशब्दोऽत्र विशेषणार्थो वर्तते। विशेषः पुनश्चार्वाकर्लोकयात्रानिर्वाहणप्रवणं धूमाद्यनुमानमिष्यते क्वचन न पुनः स्वर्गादृष्टाविप्रसाधकमलौकिकैमनमानमिति ॥८॥
नास्तिक पति-मुग्धे, पृथिवी जल आग और हवाके विशिष्ट संयोगसे बने हुए शरीरको छोड़कर अन्य कोई जीव नामका पदार्थ है ही नहीं, जो इस लोकसे परलोक जाकर शुभ और अशुभ कर्मोंके फलको भोगेगा । जो कुछ है सो यह शरीर ही है। और यह शरीर क्या है, बिजलीकी चमककी तरह हम हमेशा इसे नष्ट होता हुआ देखते हैं । कितने ही शरीर प्रतिदिन नष्ट होते हैं, चितामें जले और खाक हो गये । इस शरीरमें भूतोंके संयोगसे उत्पन्न हुई चेतना भी बिजलीकी चमककी तरह जब कभी भी समाप्त हो सकती है । इसलिए परलोकका झगड़ा छोड़ो। उसे किसने देखा है ? जो सामने है, सो खाओ पीओ और मस्तीसे भोग भोगो ।।८२॥
६५६५. अब इनके प्रमाण और प्रमेयका निरूपण करते हैं
किंच-और भी। पृथिवी जल अग्नि और वायु ये भूतचतुष्टय ही तत्त्व हैं । पृथिवी सबको आधार है । इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष हो एकमात्र प्रमाण है ॥८३॥
५६६. किंच शब्द-अभ्युच्चय-'और भी' अर्थमें प्रयुक्त होता है। पृथिवी जल आग और हवा ये चतुष्टय ही तत्त्व हैं। पृथिवी इन भूतोंका आधार है। 'चैतन्यभूमिरेतेषाम्' यह पाठ भी देखा जाता है। चार्वाकोंके मतमें ये भूतचतुष्टय चैतन्यकी भूमि-उत्पत्तिके स्थान हैं। ये सब मिलकर एक चैतन्यको उत्पन्न करते हैं 'प्रमाणभूमिरेतेषाम्' इस पाठका 'इन चार्वाकोंके मतमें भूतचतुष्टय ही प्रमाणभूमि-प्रमाणके विषय अर्थात् प्रमेय हे तत्त्व हैं।' यह अर्थ होगा। ये लोग इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षको ही एकमात्र प्रमाण मानते हैं अनुमान आदिको नहीं। 'हि' शब्द विशेष बातको सूचित करता है । वह विशेष बात यह है कि-चार्वाक लोक व्यवहारके निर्वाह के लिए धूम आदिसे अग्नि आदि लौकिक पदार्थों के अनुमानको प्रमाण मान लेते हैं। हां, स्वर्ग, अदृष्ट आदि अतीन्द्रिय अलौकिक पदार्थोंके अनुमानको व्यभिचारी तथा अप्रमाण कहते हैं ।।८३||
१. जलं तेजो भ. २ । २. पाठान्तरे तु म. २ । ३. मते तु प्रमाणं म. २ । ४. -कनिर्वा-म. २ । ५.-कमथ म.२।
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