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________________ ४५६ षड्दर्शनसमुच्चये [का० ८२. ६५६२६५६२. व्याख्या-हे चारुलोचने शोभनाक्षि पिब पेयापेयव्यवस्थालोपेन मदिरादेः पानं कुरु। न केवलं पिब खाद च भक्ष्याभक्ष्यनिरपेक्षतया मांसादिकं भक्षय च । पिबखादक्रिययोरुपलक्ष. णत्वाद्गम्यागम्यविभागत्यागेन भोगानामुपभोगेन स्वयौवनं सफलोकुवित्यपि वचोऽत्र ज्ञातव्यम् । यद् यौवनाद्यतीतम् अतिक्रान्तं हे प्रधानाङ्गि तद्भूयस्ते तव न भविष्यतीत्यध्याहार्यम् । चारुलोचने वरगात्रीति संबोधनद्वयस्थ समानार्थस्याप्यादरानुरागातिरेकान्त पौनरुक्त्यदोषः। यदुक्तम्-- "अनुवादादरवीप्साभृशार्थविनियोगहेत्वसूयासु।। ईषत्संभ्रमविस्मयगणनास्मरणेष्वपुनरुक्तम् ॥११॥" [ ६५६३. अथ स्वेच्छाविरचिते पाने खावने भोगेसेवने च सुप्रापा परलोके कष्टपरम्परा, सुलभं च सति सुकृतसंचये भावान्तरे भोगसुखयौवनादिकमिति पराशङ्कां पराकतुं प्राह । नहिनैव हे भीरु ! परोक्तमात्रेण नरकादिप्राप्यदुःखभयाकुले ! गतम्-इह भवादतिक्रान्तं सुखयौवनादि निवर्तते परलोके पुनरप्युपढौकते । परलोकसुखलिप्सया तपश्चरणादिकष्टक्रियाभिरिहत्यसुखोपेक्षणं व्यर्थमित्यर्थः। $ ५६४. अथ शुभाशुभकर्मपारतन्त्र्येण जीवेना, कायमधुनाधिष्ठाय स्थितेनावश्यं परलोकेऽपि स्वकर्महेतुकं सुखदुःखादिवेदितव्यमेवत्याशक्य प्राह । समुदयमात्रं समुदयो भूतचतुष्टयसंयोगपृथिवो आदिका समुदाय है और यहीं खतम हो जानेवाला है। परलोक तक नहीं जायेगा। अतः निर्भय होकर दिल खोलकर खाओ, पियो और मौज करो ॥४२॥ ५६२. हे चारुलोचने, पेय और अपेयका विचार छोड़कर खूब शराबके प्यालेपर प्याले ढालो । भक्ष्य अभक्ष्यके विचारकी परवाह न करके मांस आदि जो मनमें आवे सो खाओ। खाना पीना ये क्रियाएँ अन्य बातोंकी सूचक हैं, अर्थात्-गम्य-अगम्यका विचार छोड़कर खूब तबियतसे भोग भोगो और अपनी इस चार दिनकी जवानीको सफल करो। जो जवानी या शरीरको सुन्दरता लुनाई या गठन आदि चले जायेंगे, हे सुन्दरि, फिर वे तुम्हारे नहीं हो सकते। यद्यपि 'चारुलोचने और वरगात्रि' ये दोनों सम्बोधन पद समानार्थक हैं, फिर भी अत्यन्त आदर और अनुरागके सूचनके लिए प्रयुक्त होनेसे पुनरुक्त नहीं हैं। कहा भी है-"अनुवाद, आदर, वीप्साभृशार्थ-बहुलता, विनियोग, हेतु, असूया, ईषत्, संभ्रम, विस्मय, गणना तथा स्मरण, इन अर्थों में शब्दका दुबारा प्रयोग पुनरुक्त नहीं होता।" ५६३. आस्तिक स्त्री-इच्छानुसार स्वच्छन्दता पूर्वक खाने-पीने तथा मजा-मौज करनेसे तो पाप होगा और परलोकमें दुःख मिलेगा। यदि यहाँ थोड़ा खान-पान आदिका विवेक रखकर संयत प्रवृत्ति करेंगे, तो पुण्यका संचय होनेसे परलोक भोग सुख यौवन आदि इससे भी अधिक मिलेंगे अतः विचारपूर्वक परलोकके सुख-दुःखका ध्यान रखकर ही प्रवृत्ति करना उचित है । नास्तिक पति-हे इन धूतॊके बहकावमें आकर नरक आदिके दुःखोंसे डरनेवाली भीरु प्रिये, इस लोकका गया हुआ यौवन और सुख परलोकमें वापस नहीं आयेंगे। जो गया सो गया। इसलिए परलोकके सुखकी मिथ्या चाहसे तपश्चरण आदि क्रियाओंसे इस लोकके मौजूद भोगोंकी उपेक्षा करना बड़ी भारी मूर्खता है । यह तो बादल देखे बिना ही मौजूदा पानीका घड़ा फोड़ देना है। ५६४. आस्तिक स्त्री-जो जीव अपने पूर्वकृत शुभ-अशुभ कर्मोंके फलको इस शरीरमें भोग रहा है उसे आज किये गये कर्मोंके फलको भी परलोकमें दूसरा शरीर धारण करके भोगना ही पड़ेगा। कर्म तो भोगे बिना छूट ही नहीं सकते। १. भोगासेव-भ. २ । २. -- केषु पुन - म. २ । ३. -क्याह समु-म. २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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