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________________ - का० ८१.६ ५५९] लोकायतमतम् । ४५३ नापरं किमपि । लोकग्रहणाल्लोकस्थाः पदार्थसार्था ग्राह्याः। ततो यत्परे जीवं पुण्यपापे तत्फलं स्वर्गनरकादिकं च प्राहुः, तन्नास्ति, अप्रत्यक्षत्वात् । अप्रत्यक्षमप्यस्तीति चेत् । शशशृङ्गबन्ध्यास्तनन्धयादीनामपि भावोऽस्तु। न हि पञ्चविधेन प्रत्यक्षेण मृदुकठोरादिवस्तूनि तिक्तकटुकषायादिद्रव्याणि सुरभिदुरभिभावान् भूभधरभुवनभूरुहस्तम्भाम्भोरुहादिनरपशुश्वापदा. दिस्थावरजङ्गमपदार्थसार्थान् विविधवेणुवीणादिध्वनींश्च विमुच्य जातुचिदप्यन्यदनुभूयते । यावता च भूतोद्भूतचैतन्यव्यतिरिक्तश्चैतन्यहेतुतया परिकल्प्यमानः परलोकयायी जीवः प्रत्यक्षेण नानुभूयते तावता जीवस्य सुखदुःखनिबन्धनौ धर्माधर्मो तत्प्रकृष्टफलभोगभूमी स्वर्गनरको पुण्यपापक्षयोत्यमोक्षसुखं चोपवर्ण्यमानानि आकाशे विचित्रचित्रविरचनमिव कस्य नाम न हास्यावहानि । ततो येऽत्रास्पृष्टमनास्वादितमनाघ्रातमदृष्टमश्र तमपि जीवादिकमाद्रियमाणाः स्वर्गापवर्गादिसुखलिप्सया विप्रलब्धबुद्धयः शिरस्तुण्डमुण्डनदुश्चरतरतपश्चरणाचरणसुदुःसहतपनातपसहनादिक्लेशैर्यत्सौवं जन्म क्षपयन्ति, तसेषां महामोहोद्रेकविलसितम् । तदुक्तम् "तेपांसि यातनाश्चित्राः संयमो भोगवञ्चना । अग्निहोत्रादिकं कर्म बालक्रीडेव लक्ष्यते ।।१।। यावज्जीवेत्सुखं जीवेत्तावद्वेषयिकं सुखम् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ।।२।।" का सद्भाव है ही नहीं। कोमल कठोर आदि छूने लायक पदार्थ, तोता कड़वा कषायला आदि चखने लायक पदार्थ, सुगन्धित और दुर्गन्धित आदि सूंघे जानेवाले पदार्थ, पृथिवी पहाड़ जगत् वृक्ष खम्भा कमल आदि, मनुष्य पशु श्वापद आदि स्थावर-स्थित रहनेवाले और जंगम-चलनेफिरनेवाले, आँखोंसे दिखने लायक पदार्थ तथा अनेक प्रकारके वीणा बांसुरी आदिके सुनने लायक शब्दोंको छोडकर संसारमें बचता ही क्या है? इन्हीं पदार्थोका ही समदाय जगत है. इनसे अतिरिक्त किसी भी अतीन्द्रिय पदार्थकी सत्ता नहीं है। जब पृथिवी आदिसे उत्पन्न होनेवाले चैतन्यसे भिन्न कोई स्वतन्त्र अतीन्द्रिय परलोकगामी जीव हो प्रत्यक्ष अनुभवमें नहीं आता उसका साक्षात्कार नहीं होता तब उसके सुख-दुःखके कारण धर्म और अधर्म, उत्कृट धर्म और अधर्मके फल भोगने के स्थान स्वर्ग और नरक, पुण्य और पाप दोनोंके नाशसे होनेवाला मोक्ष सुख इत्यादि अतीन्द्रिय पदार्थों की कल्पना तो उसी तरह हास्यास्पद तथा उपेक्षणीय है जिस तरह आकाशमें अनेक रंगोंसे विचित्र चित्र बनाने को खयाली कल्पना। इस तरहकी अननुभूत बातोंको सुनकर किस समझदारको हंसो न आयेगी? इसीलिए जो लोग छूने चाटने सूंघने देखने तथा सुननेके अयोग्य-जिन्हें न छू सकते हैं न चाट सकते हैं न संघ सकते हैं न देख सकते हैं और न सुन ही सकते हैं ऐसे अतोन्द्रिय जोवादि पदार्थों की कल्पना करके स्वर्ग मोक्ष आदिके सुखको चाहसे ठगे जाकर भ्रष्ट बुद्धिसे शिर दाढ़ो मुंडाकर कठोर तप तपते हैं, दुश्चर व्रत धारण करते हैं, गरमीकी कठोर धूप आदिको सहन करते हैं तथा और भी नाना प्रकारके क्लेशोंको सहकर इस मनुष्य जन्मको बिगाड़ते हैं उनको मूर्खता तथा महामोहके तोत्र उदयको देखकर उन बेचारोंपर दया आती है। कहा भी है-विविध तप केवल निरर्थक दारुण यातनाएं सहना ही है । संयम भोगोंसे वंचित रह जाना है तथा अग्निहोत्र आदि क्रियाएं लड़कोंके खिलवाड़ जैसी ही मालूम होती हैं। इसलिए जबतक जियो तबतक सुखसे जियो, खूब विषय सुख भोगो। जब यह देह जल जायेगी, शरीर १. लिप्साविप्रल-भ..,प. १, २, आ., क.। २. तथा चाभाणक:-अग्निहोत्रं यो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम् । बुद्धिपौरुषहीनानां जीविकेति बृहस्पतिः ॥"-सर्वदर्शनसं. पृ. ५। ३. "यावज्जीवं सुखं जोवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कृतः ॥ इति लोकगाथाम...।" -सर्वदर्शन सं.पू.२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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