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________________ ४५४ षड्दर्शनसमुच्चये [का. ८१६५६०इत्यादि ततः सुस्थितमिन्द्रियगोचर एव तात्त्विक इति ॥ ६५६०. अथ ये परोक्षे विषयेऽनुमानादीनां प्रामाण्येन जोवपुण्यपापादिकं व्यवस्थापयन्ति न जातुचिद्विरमन्ति तान् प्रबोधयितुं दृष्टान्तं प्राह 'भद्रे वृकपदं पश्य' इति । अत्रायं संप्रदायःकश्चित्पुरुषो नास्तिकमतवासनावासितान्तःकरणो निजां जोयामास्तिकमतनिबद्धति स्वशास्त्रोक्तयुक्तिभिरभियुक्तः प्रत्यहं प्रतिबोधयति । सा तु यवा न प्रतिबुध्यते तदा स इयमनेनोपायेन प्रतिभोत्स्यत इति स्वचेतसि विचिन्त्य निशायाः पश्चिमे यामे तया समं नगरान्निर्गत्ये तां प्रत्यवादीत् । 'प्रिये ! य इमे नगरवासिनो नराः परोक्षविषयेऽनुमानादिप्रामाण्यमाचक्षाणा लोकेन च बहुश्रु ततया व्यवह्रियमाणा विद्यन्ते, पश्य तेषां चौरुविचारणायां चातुर्यम्' इति । ततः स नगरद्वारादारभ्य चतुष्पथं यावन्मन्थरतरप्रसृमरसमीरणसमीभतपांशुप्रकरे राजमार्गे द्वयोरपि स्वकरयोरङ्गलित्रयं मोलयित्वा स्वशरीरस्योभयोः पक्षयोः पांशुषु न्यासेन वृकपदानि प्रचक्र । ततः प्रातस्तानि पदानि निरीक्ष्यास्तोको लोको राजमार्गेऽमिलत् । बहुश्र ता अपि तत्रागता जनान् प्रत्यवोचन् 'भो भो वृकपदानामन्यथानुपपत्त्या नूनं निशि वृकः कश्चन वनतोऽत्रागच्छत्' इत्यादि । ततः स तांस्तथाछूटकर राख हो जायेगा तब इसका फिर मिलना कठिन है। इसलिए आगेके सुखकी झूठी इच्छासे मोजूद अवसरको नहीं चूकना चाहिए । इसलिए यह बात सुनिश्चित है कि इन्द्रियगोचर पदार्थ हो तात्त्विक हैं उन्हींकी वास्तविक सत्ता है। ६५६०. जो आस्तिकवादी जीव पुण्य-पाप आदि परोक्ष अतीन्द्रिय पदार्थोंको परोक्ष विषयक अनुमान आगम आदिको प्रमाण मानकर सिद्धि करते हैं और अपने इस निर्मूल तथा निरर्थक प्रयत्नसे विरत नहीं होते, मूढ़ लोगोंको अतीन्द्रिय सुखका लोभ देकर ठगते हैं उनके अनुमानकी व्यर्थता दिखाने के लिए उनकी बुद्धिको ठिकाने लानेके लिए वृक पदका दृष्टान्त पर्याप्त है । एक परमनास्तिक चार्वाक था। उसकी पत्नी परम धार्मिक तथा आस्तिक थी। वह प्रतिदिन अपनी स्त्रीको नास्तिक युक्तियोंसे धार्मिक कार्य और अनुमान आदिको व्यर्थता समझाया करता था। परन्तु स्त्रोकी धार्मिक और परलोक आदि पर दृढ़ विश्वास रखनेवाली बुद्धिमें परिवर्तनके कोई लक्षण नहीं दिखाई दिये । स्त्री हमेशा यही कहती थी कि प्रत्यक्ष सिद्ध पदार्थों के सिवाय अनुमान और आगमसे सिद्ध होनेवाले स्वर्ग नरक परलोक आदि भी हैं। मतलब यह कि जब उसकी स्त्रीकी आस्तिक बुद्धि नहीं पलटी तब उसने एक उपाय सोना। वह एक दिन रात्रिके पिछले पहर अपनी स्त्रीको लेकर नगरके बाहर गया। नगरके बाहर पहुंचकर अपनी स्त्रीसे प्रेमपूर्वक बोलाप्रिये, इस नगरमें बहुत-से बहुश्रुत पण्डित हैं, जो सदा परोक्ष पदार्थों के लिए अनुमान और आगमको प्रमाणताको घोषणा किया करते हैं और नगरमें अपने थोथे पल्लवग्राहिज्ञानसे बहुश्रुत विद्वान् बने हुए हैं। इनके प्रभावमें आकर तुम जैसे मूढ़ लोग परलोक-परलोक चिल्लाया करते हैं। आज हम उनकी बुद्धि तथा विचार करनेकी शक्तिकी परीक्षा करते हैं और उनकी पोपलीलाका दिवाला खोलते हैं । यह कहकर उसने नगर के दरवाजेसे लेकर चौराहे तक सारे राजमार्ग में भेड़ियेके पैरके निशान बना दिये । प्रातःकाल हो रहा था, अतः वायुके मन्द-मन्द झकोरोंसे नगरको मुख्य सड़ककी धूल बिलकुल एक-सी समतल हो गयी थी। उसने उस समतलवाली धूलिमें अपने हाथके अंगूठा प्रदेशिनी-अंगूठेके पासको अंगुली तथा बीचकी अंगुलोको मिलाकर दोनों हाथोंके बल चलकर ठीक भेड़ियेके पैरोंके समान चिह्न बड़ी ही कुशलतासे बना दिये । जब प्रातःकाल हुआ, और रास्तेसे लोग आने-जाने लगे तब उन भेड़ियोंके पैरके निशानोंको देखकर बहुत-से लोग उस रास्तेपर इकट्ठे हो गये । इसी समय नगरके बहुश्रुत पण्डित भी वहां आ पहुंचे। उन्होंने अपनी थोथी - १. जायां नास्तिकमतिनिबद्धमतिस्व-म.२। २. -त्यावादीत म. । ३. चारुविचारविचारणायां म.१,२।४.-मन्थरप्रसू-म. २। ५. वृकपशुः वन-म. २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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