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४५२ षड्दर्शनसमुच्चये
[का० ८०. ६५५७लोकायता वदन्त्येवं नास्ति जीवो न निर्वृतिः।।
धर्माधौं न विद्यते न फलं पुण्यपापयोः ॥८॥ $ ५५७. व्याख्या-'लोकायता नास्तिका एवम् इत्थं वदन्ति । कथमित्याह । जीवश्चेतनालक्षणः परलोकयायो नास्ति, पञ्चमहाभूतसमुद्भूतस्य चैतन्यस्येहैव भूतनाशे नाशात्परलोकानुसरणसंभवात् । जोवस्थाने देव इति पाठे तु देवः सर्वज्ञादिर्नास्ति। तथा न निवृतिर्मोक्षो नास्ती. त्यर्थः । अन्यच्च धर्मश्चाधर्मश्च धर्माधर्मो न विद्यते पुण्यपापे सर्वथा न स्त इत्यर्थः । न नैव पुण्य. पापयोः फलं स्वर्गनरकादिरूपमस्ति, धर्माधर्मयोरभावे कुतस्त्यं तत्फलमिति भावः ॥४०॥
५५८. सोल्लुण्ठं यथा ते स्वशास्त्रे प्रोचिरे तथैव दर्शयन्नाह-तथा च तन्मतम् ।
एतावानेव लोकोऽयं यावानिन्द्रियगोचरः।
भद्रे वृकपदं पश्य यद्वदन्त्यबहुश्रुताः ॥८१॥ ६५५९. 'तथा च' इत्युपदर्शने। तन्मतं प्रक्रमान्नास्तिकमतम् । तत्कीदृगित्याह अयं-प्रत्यक्षो लोको मनुष्यलोकः। एतावानेव एतावन्मात्र एव । यावान् यावन्मात्रः। इन्द्रियगोचरः इन्द्रियाणि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणि पञ्च तेषां गोचरो विषयः, पञ्चेन्द्रियविषयीकृतमेव वस्तु विद्यते
लोकायत-चार्वाक कहते हैं कि जीव, मोक्ष, धर्म, अधर्म तथा पुण्य और पापका फल आदि कुछ भी नहीं है ॥४०॥
५५७. नास्तिक लोग कहते हैं कि इस लोकसे परलोकमें जानेवाला चेतनालक्षणवाला कोई जीव नामका स्वतन्त्र तत्त्व नहीं है । पृथिवी आदि पांच महाभूतोंके विशिष्ट मिश्रणसे उत्पन्न होनेवाला जीव इन भूतोंके साथ यहीं इसी लोकमें नष्ट हो जाता है, परलोक तक, उसका जाना असम्भव है। कहीं 'जीवः' की जगह 'देवः' पाठ है। सर्वज्ञ आदि विशेषणोंवाला कोई देव नहीं है । इसी तरह निर्वृति-मोक्ष भी नहीं है, धर्म, अधर्म, पुण्य, पाप आदि कुछ भी नहीं हैं और न पुण्य-पापके फल स्वर्ग-नरक आदि हैं। जब धर्म-अधर्म ही नहीं हैं तब स्वर्ग-नरक कहांसे आयेंगे? जड़ ही नहीं है तब फलकी बात निरर्थक ही है ॥८१॥
५५८. चार्वाक लोग जिस तरह दूसरोंकी हंसी करते हुए अपने शास्त्रोंमें तत्त्वनिरूपण करते हैं उसका थोड़ा नमूना बताते हैं
जितना आँखोंसे दिखाई देता है इन्द्रियोंसे गृहीत होता है उतना ही लोक है। जो मूर्ख लोग अनुमानको चर्चा करते हैं उन्हें भेड़ियेके पैरके कृत्रिम चिह्नोंसे उसकी व्यर्थता बता देनी चाहिए ॥८॥
६५५९. कई चार्वाक अपनी धर्मभीरु स्त्रीको भेड़ियेके पैरके कृत्रिम चिह्नोंसे अनुमानकी व्यर्थता बताकर उसे प्रत्यक्ष सुखदायी विषय-भोगोंमें अनुरक्त रहनेकी प्रेरणा करते हैं। यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला मनुष्यलोक स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पाँच इन्द्रियोंके द्वारा ही विषय होनेवाले पदार्थों तक ही सीमित है। इनसे परे कोई अतीन्द्रिय वस्तु नहीं है। आस्तिकवादी जिन जीव, पुण्य, पाप, उनके फल स्वर्ग-नरक आदि अतीन्द्रिय पदार्थों को मानते हैं वे वस्तुतः हैं ही नहीं क्योंकि उनका प्रत्यक्ष-साक्षात्कार नहीं होता। यदि इस तरह काल्पनिक और अप्रत्यक्ष पदार्थों को मानने लगें; तो खरगोशके सींग तथा वन्ध्या-बांझके भी लड़केका सद्भाव मान लेना चाहिए । पाँच प्रकारकी इन्द्रियोंके विषयोंको छोड़कर संसारमें अन्य किसी अतीन्द्रिय पदार्थ
१. लोकायिता म. १, २, प. १, २ । २. नास्ति अन्यच्च म. २ । ३. -दि च भ. २।।
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