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________________ -का० ७९.६५५६] लोकायतमतम् । ४५१ निगदन्ति । तन्मते भूतेभ्यो मैदशक्तिवच्चैतन्यमुत्पद्यते । जेलबुदबुदवज्जीवाः। चैतन्यविशिष्टः कायः पुरुष इति । ते च मद्यमांसे भुञ्जते मात्राधगम्यागमनमपि कुर्वते । वर्षे वर्षे कस्मिन्नपि दिवसे सर्वे संभूय यथानामनिर्गमं स्त्रीभिरभिरमन्ते। धर्म कामादपरं न मन्वते। तन्नामानि चार्वाका लोकायता इत्यादीनि । 'गल चवं अदने चर्वन्ति भक्षयन्ति तत्त्वतो न मन्यन्ते पुण्यपापादिकं परोक्षं वस्तुजातमिति चार्वाकाः। "मयाकश्यामाक" [ ] इत्यादिसिद्धहैमोणादिदण्डकेन शब्दनिपातनम्। लोकाः निविचाराः सामान्यलोकास्तद्वदाचरन्तिस्मेति लोकायता लोकयतिका इत्यपि । बृहस्पतिप्रणीतमतत्वेन बार्हस्पत्याश्चेति । ५५६. अथ तन्मतमेवाहकहते हैं। इनके मतमें इन भूतोंके विशिष्ट संयोगसे ही महुआ आदिके सड़ानेपर शराबमें मादकशक्तिकी तरह भूतोंमें ही चैतन्यशक्ति उत्पन्न हो जाती है। जिस तरह जलमें बुलबुले उत्पन्न होते और विलीन होते रहते हैं उसी तरह जीव भी इन्हीं भूतोंसे उत्पन्न होकर इन्हीं में लीन होते रहते हैं। चैतन्य विशिष्ट शरीरका नाम ही आत्मा है। ये शराब पीते हैं, मांस खाते हैं तथा माता आदि अगम्या स्त्रियोंसे व्यभिचार करने में नहीं चूकते। ये लोग वाममागियोंकी तरह अगम्यागमन, शराब पीना तथा मांस भक्षण आदि धर्मबुद्धिसे करते हैं। ये लोग प्रतिवर्ष किसी नियत दिनमें इकटे होते हैं। और जिस स्त्रीका नाम जिस परुषके साथ निकल आवे वह उसके साथ रमण करता है। ये सब स्त्री और पुरुषों के नाम एक-एक कागजके टुकड़ेपर लिखकर दो पृथक् कूड़ोंमें रख देते हैं और आंख मूंदकर एक स्त्रीका नाम और एक पुरुषका नाम निकालते हैं। इस विधिसे जिस स्त्रीका जिस पुरुषके साथ नाम निकल आता है वे दोनों चाहे मां बेटे ही क्यों न हों शराब पीकर मैथुन सेवन करते हैं। यह इनका सामूहिक व्यभिचारका पर्व दिन माना जाता है। काम-सेवनके सिवाय इनका और कोई दूसरा धर्म नहीं है। चार्वाक लोकायत आदि नामोसे व्यवहृत होते है। गल और चवं धातुएं भक्षणार्थक है। अतः चन्ति-खाना-पीना मौज उड़ाना ही जिनका एकमात्र लक्ष्य है, जो पूण्य-पाप आदि अतीन्द्रिय वस्तुओंको वास्तविक नहीं मानते वे चार्वाक हैं । 'मयाकश्यामाक' आदि सिद्ध हेमव्याकरणके औणादिक सूत्रसे 'चार्वाक' शब्द निपात संज्ञक सिद्ध होता है । साधारण विचारशून्य मूर्ख लोगोंकी तरह आचरण करनेवाले लोकायत या लोकायतिक कहलाते हैं। चार्वाकोंके गुरु बृहस्पति हैं। अतः बृहस्पतिके द्वारा प्रणीत मतका अनुसरण करने के कारण ये बार्हस्पत्य भी कहे जाते हैं। ६५५६. अब इनके मतका निरूपण करते हैं १. "मदशक्तिवच्चतन्यमिति ।"-प्रकरण पं. पृ. १४५। न्यायमं.। पू. ४३. । ब्रह्मसू. शां. भा. ३१३१५३ । न्यायकुमु. पृ. ३४२ । “चतुर्म्यः खलु भूतेभ्यश्चैतन्यमुपजायते । किण्वादिभ्यः समतेभ्यो द्रव्येभ्यो मदशक्तिवत् ॥" -सर्वदर्शनसं. प.५। "तेभ्य एव तथा ज्ञानं जायते व्यज्यतेऽथवा।" -तत्त्वसं. "तेभ्यश्चैतन्यमिति, तत्र केचिद् वृत्तिकारा व्याचक्षते उत्पद्यते तेभ्यश्चैतन्यम्, अन्ये अभिव्यज्यते इति ।" -तत्त्वसं. पं. पू. ५२० । ब्रह्मसू. शां. भा. ३।३।५३। प्रमेयक. पृ. ११७ । २. “यतः "जलबुदबद्वज्जीवाः।" यथैव हि समुद्रादी नियामिकादृष्टरहिताः पदार्थसामर्थ्यवशाद् वैचित्र्यभाजो बुद्दाः प्रादुर्भवन्ति यथा सुखदुःखवैचित्र्यभाजो जीवाः; पुनः कायाकारपरिणतभूतव्यतिरिक्ता नित्यादिस्वभावाः तत्सद्भावे प्रमाणाभावात् ।"-न्यायकुमु. पृ. ३४२। ३. मात्राद्यगम्यगमन-आ., मात्राद्यगम्यानागमन-म. २, मात्राद्यगमन -प.१,२। ४. दिने सर्वे म. २। .५. स्त्रीभी रमन्ते म.२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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