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-का० ७६. ६ ५४६]
मीमांसकमतम्।
यद्वानुवृत्तिव्यावृत्तिबुद्धिग्राह्यो यतस्त्वयम् । तस्माद्गवादिवद्वस्तुप्रमेयत्वाच्च गृह्यताम् ।।२।। न चावस्तुन एते स्युर्भदास्तेनास्य वस्तुता। कार्यादीनामभावः को भावो यः 'कारणादिना ॥३॥ वस्तु (स्त्व) संकरसिद्धिश्च तत्प्रामाण्यं समाश्रिता । क्षीरे दध्यादि यन्नास्ति प्रागभावः स उच्यते ॥४॥ नास्तिता पयसो दध्नि प्रध्वंसाभावलक्षणम् । गवि योऽश्वाद्यभावस्तु सोऽन्योन्याभाव उच्यते ॥५॥ शिरसोऽवयवा निम्ना वृद्धिकाठिन्यजिताः।
शशशृङ्गादिरूपेण सोऽत्यन्ताभाव उच्यते ॥६॥" [मी. श्लो. अभाव. श्लो. २-९] यदि चैतद्व्यवस्थापकमभावाख्यं प्रमाणं न भवेत् तदा प्रतिनियतवस्तुव्यवस्था दूरोत्सारितैव स्यात् ।
"क्षीरे दधि भवेदेवं दघ्नि क्षीरं घटे पटः ।
शशे शृङ्गं पृथिव्यादौ चैतन्यं मूर्तिरात्मनि ॥७॥ समस्त व्यवहार ही नष्ट हो जायगा। ये समस्त कार्यकारण आदि व्यवहार सर्वलोक प्रसिद्ध हैं इनका लोप करनेसे वस्तुमात्रका अभाव हो जायगा। कहा भी है-“यदि प्रागभाव आदिके भेदसे अभावके चार भेद न होते तो संसारमें यह कार्य है, यह कारण है इत्यादि व्यवहार नहीं हो सकते थे। कार्यके प्रागभावको कारण तथा प्रागभावके प्रध्वंसको ही कार्य कहते हैं। यदि प्रागभाव और 'प्रध्वंसाभाव न हों तो कारण-कार्य व्यवहार किसके बलपर किया जायगा ? अथवा, अभाव वस्तु है, क्योंकि उसमें गौ आदिकी तरह 'अभाव अभाव' यह अनुवृत्त-सामान्य प्रत्यय और 'प्रागभाव' प्रध्वंसाभाव' यह व्यावृत्त-विशेष प्रत्यय होते हैं तथा वह प्रमाणका विषय है प्रमेय है। अवस्तुके तो ये प्रागभाव आदि भेद हो ही नहीं सकते। अत: चूंकि इसके प्रागभाव आदि अवान्तर भेद हैं इसीलिए यह वस्तु है। घट आदि कार्योंका अभाव ही मृत्पिण्ड आदि कारणोंका सद्भाव है । तात्पर्य यह कि अभाव सर्वथा तुच्छ न होकर भावान्तर रूप है । घड़ेका अभाव शुद्ध भूतल रूप है। कार्यका अभाव कारणके सद्भाव रूप है। वस्तुओंका अपने-अपने नियत स्वरूपमें स्थिर रहना उनका आपस में नहीं मिलना ही अभावकी सत्ताका सबसे जबरदस्त प्रमाण है । दूध आदि कारणोंमें दही आदि कार्योंका न होना हो प्रागभाव है। यदि प्रागभाव न होता तो दूधमें भो दही मिलना चाहिए था। दहो आदि कार्यों में दूध आदि कारणोंका नहीं मिलना प्रध्वंसाभाव है। यदि प्रध्वंसाभाव न होता तो दूधका नाश न होकर दही अवस्थामें भी उसका सद्भाव रहना चाहिए था। गाय आदिमें घोडे आदिका अभाव अन्योन्याभाव है। खरगोशके सिरके अवयवोंमें वद्धि तथा कठिनता न होकर निम्न-समतलमें रहना ही सोंगका अत्यन्ताभाव है । सिरके अवयवोंका कठिन होकर बढ़ने लगना आगेको निकल आना ही सोंग कहलाते हैं । जब सिरके अवयव समतलमें रहेंगे कठिन तथा बढ़ेंगे नहीं तब वही सिरको समतलता हो शशशृंगका अत्यन्ताभाव कही जाती है । यदि इनका व्यवस्थापक अभाव प्रमाण न हो तो वस्तुको नियत व्यवस्थाकी आशा ही नहीं की जा सकती। अभावोंका लोप करनेसे तो सभी पदार्थ सब रूप हो जायेंगे उनका कोई नियामक ही नहीं रहेगा। उस समय तो-"दूधमें दही, दहीमें दूध, घड़ा ही कपड़ा, खरगोशके मस्तकपर सींग, पृथिवीमें चेतनता, आत्मामें मूर्तत्व, जलमें गन्ध, अग्निमें रस, वायुमें रूप, रस, गन्ध,
१.-दिन भ.१,प..,२। २-दित: म,२। २. वस्त्वसंकरसिद्धिश्च"-मी. श्लो.। ३. क्षीरोदध्यादि आ. क.।
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