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________________ ४४८ षड्दर्शनसमुच्चये [ का.७६.६ ५४७अप्सु गन्धो रसश्चाग्नौ वायो रूपेण तो सह । व्योम्नि 'संस्पर्शिता ते च न चेदस्य प्रमाणता ॥८॥" [मी. श्लो. अभाव. श्लो. ५-६] इति । $ ५४७. अथ निरंशसदेकरूपत्वाद्वस्तुनोऽध्यक्षेण सर्वात्मना ग्रहणे कोऽपरो सदंशो यत्राभावः प्रमाणं भवेदिति चेत्, न; स्वपररूपाम्यां सदसदात्मकत्वाद्वस्तुनः, अन्यथा वस्तुत्वायोगात् । न च सदंशासदंशस्याभिन्नत्वात्तद्ग्रहणे तस्यापि ग्रह इति वाच्यम्, सदसदंशयोधर्यभेदेऽपि भेदाभ्युपगमात् । तदेवं प्रत्यक्षायं गृहीतप्रमेयाभावग्राहकत्वात् प्रमाणाभावः प्रमाणान्तरमिति । ५४८. अथोक्तमपि किंचिद्व्यक्तये लिख्यते-अनधिगतार्थाधिगन्तु प्रमाणम् । पूर्व पूर्व प्रमाणमुत्तरं तु फलम् 'सामान्यविशेषात्मकं वस्तु प्रमाणगोचरः। नित्यपरोक्षं ज्ञानं हि भाट्टप्रभाकरमतयोरर्थप्राकट्याख्यसंवेदनाख्यफलानुमेयम् । वेदोऽपौरुषेयः। वेदोक्ता हिंसा धर्माय । शब्दो नित्यः। आकाशमें स्पर्श आदिका प्रसंग होनेसे सारी लोकव्यवस्था नष्ट हो जायगी। यदि अभावकी सत्ता न मानी जायगी तो यह प्रतिनियत लोकव्यवहार नहीं हो सकेगा।" ६५४७. शंका--वस्तु तो मात्र सद्प है। उसमें एक ही सदंश है अन्य असदंश है ही नहीं । अतः जब वह निरंश वस्तु पूरे रूपसे प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे हो गृहीत हो जाती है तब उसमें ऐसा कौन-सा असदंश बचाता है जिसे जाननेके लिए अभावको प्रमाण माना जाय ? समाधान-वस्तु न तो निरंश है और न केवल सदंशवाली ही। वस्तुमें तो सत् और असत् दोनों ही अंश हैं। वस्तुमें स्वरूपको दृष्टिसे सदंश है तथा परवस्तु ओंकी दृष्टिसे असदंश । यदि वस्तु स्वरूपसे सत् न हो तो फिर वह कुछ भी नहीं रहेगी, सर्वथा असत् हो जायगी। इसी तरह यदि वस्तु पररूपसे असत न हो तो स्व और परका विभाग ही नहीं रहेगा। तात्पर्य यह कि सदसदात्मक माननेपर ही उसमें वस्तुत्व रह सकता है। शंका-जब सदंशसे असदंश अभिन्न है तब प्रत्यक्षादिसे सदंशका ग्रहण होनेपर असदंशका ग्रहण तो अपने ही आप हो जायगा, उसको जाननेके लिए अभाव प्रमाणको क्या आवश्यकता है ? धर्म और धर्मीमें तादात्म्य होनेसे धर्मों का भी परस्पर तादात्म्य हो हो जाना चाहिए। समाधान-यद्यपि सदंश और असदंश रूप धर्मोंका धर्मी अभिन्न है एक ही है परन्तु उनका परस्पर भेद भी है। अतः धर्मीकी दृष्टिसे परस्पर तादात्म्य होनेपर भी स्वरूपकी दृष्टिसे दोनों ही धर्म जुदे-जुदे हैं। अतः सदंशका प्रत्यक्षादिसे ग्रहण होनेपर भी असदंश अगृहीत रहता है और इसी असदशके ग्रहणके लिए अभाव प्रमाणको आवश्यकता है। इस तरह प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे अगृहीत प्रमेयाभाव-अभाव नामक प्रमेयको ग्रहण करनेवाला प्रमाणाभाव-अभाव नामक प्रमाण स्वतन्त्र सिद्ध हो जाता है। ६५४८. मूल ग्रन्थकारके द्वारा कही गयी कुछ बातें स्पष्ट करते हैं-अगृहीत अर्थको जाननेवाला ज्ञान प्रमाण है। पूर्व-पूर्व साधकतम अंश प्रमाण तथा उत्तरोत्तर साध्य अंश फल रूप हैं। सामान्य विशेषात्मक वस्तु प्रमाणका विषय होती है। ज्ञान सदा परोक्ष है। वह भाट्टमतमें अर्थप्राकट्य रूप फलसे तथा प्राभाकर मत में संवेदन रूप फलसे अनुमित होता है। वेद अपौरुषेय है। वेदविहित हिंसासै धर्म होता है। सर्वज्ञ नहीं है। वेदान्तमतमें यह सब दृश्यमान जगत् जाल अविद्या या मायासे प्रतिभासित होता है पारमार्थिक नहीं है, इसकी मात्र प्रातिभासिकी सत्ता है। १. संस्पर्शना ते म.२। २ "स्वरूपपररूपाभ्यां नित्यं सदसदात्मके । वस्तुनि ज्ञायते कैश्चिद्रूपं किचित्कदाचन ॥"-मो. इलो. अमाव. इको. १२। "धर्मयोर्भेद इष्टो हि धर्नाभेदेऽपि नः स्थिते ॥" मी. इको. अमाव. इको. २०। ४. -द्यभिगृहीत -म.२। ५. मी. इको. प्रत्यक्ष. श्लो. ७०-७२ । ६. "सामान्यं वा विशेषो वा ग्राह्यं नातोऽत्र कल्प्यते।"-मी. इलो. प्रत्यक्ष. श्लो. १४ । ७. चिरं आ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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