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________________ ४४६ षड्दर्शनसमुच्चये [का०७६.६५४४पञ्चकं प्रत्यक्षादिप्रमाणपञ्चकं यत्र यस्मिन् वस्तुरूपे घटादिवस्तुरूपें न जायते न व्यापिपत्ति । वस्तुरूपं द्वेधा, सदसद्रूपभेदात् । अतो द्वयो रूपयोरेकतरव्यक्तये प्राह 'वस्तुसत्ता' इत्यादि । वस्तुनो घटादेः सत्ता सद्रूपता सवंश इति यावत्, तस्या अवबोधार्थ सदंशो हि प्रत्यक्षादिपञ्चकस्य विषयः, स चेत्तेन न गृह्यते, तदा तत्र वस्तुरूपे शेषस्यासदंशस्य ग्रहणाभावस्य प्रमाणतेति । ६५४४. 'वस्त्वसत्तावबोधार्थ' इति क्वचित्पाठान्तरम् । तत्रायमर्थः-प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तनो रूपे न व्याप्रियते. तत्र वस्तनो यासत्ता असदंशः, तदवबोधार्थमभावस्य प्रमाणतेति । अनेन च 'त्रिविधेनैकविधेन वाभावप्रमाणेन प्रदेशादौ घटाभावो गम्यते । न च प्रत्यक्षेणैवाभावोऽवसीयते, तस्याभावविषयत्वविरोधात्, भावांशेनैवेन्द्रियाणां संयोगात् । $ ५४५. अथ घटानुपलब्ध्या प्रदेशे धर्मिणि घटाभावः साध्यत इत्यनुमानग्राह्योऽभाव इति चेत्, न; साध्यसाधनयोः कस्यचित्संबन्धस्याभावात् । तस्मादभावोऽपि प्रमाणान्तरमेव । ६५४६. अभावश्च प्रागभावाविभेदभिन्नो वस्तुरूपोऽभ्युपगन्तव्यः, अन्यथा कारणादिव्यवहारस्य लोकप्रतीतस्याभावप्रसङ्गात् । तदुक्तम् "न च स्याद् व्यवहारोऽयं कारणादिविभागतः । प्रागभावादिभेदेन नाभावो यदि भिद्यते ॥१॥ व्याख्यान करते हैं। जब घटादि वस्तुके सदंशमें प्रत्यक्षादि पांच प्रमाणोंका व्यापार नहीं होता तब उस वस्तुके शेष-अभावांशमें अभाव प्रमाणको प्रवृत्ति होती है। वस्तुके दो रूप होते हैं-एक सदात्मक और दूसरा असदात्मक । वस्तुका सदात्मक अंश प्रत्यक्षादि पांच प्रमाणोंका विषय होता है। जब प्रत्यक्षादि पांच प्रमाण उस सदंशको ग्रहण नहीं करते तब बचे हुए असदंशको अभाव प्रमाण विषय करता है। $५४४. कहीं-कहीं 'वस्त्वसत्तावबोधार्थम्' यह पाठ भी मिलता है। इसका अर्थ यह होता है-जिस वस्तुके स्वरूपको ग्रहण करनेके लिए प्रत्यक्षादि पांच प्रमाणोंका व्यापार नहीं होता, उस वस्तुके असदंशको जाननेके लिए अभाव प्रमाणकी प्रवृत्ति होती है। इस तरह तीन प्रकारके या एक ही प्रकारके अभाव प्रमाणसे किसी भूतल आदि प्रदेशमें घड़ेका अभाव जाना जाता है। इन्द्रियोंका संयोग वस्तुके भावांशसे ही होता है, अतः प्रत्यक्ष प्रमाणके द्वारा अभावांश नहीं जाना जा सकता। प्रत्यक्षके द्वारा अभावका विषय किया जाना बाधित है। ६५४५. घड़ेकी अनुपलब्धि रूप लिंगसे किसी भूतल आदि प्रदेशरूपी धर्मीमें घड़े अभावको साध्य मानकर 'इस प्रदेशमें घड़ा नहीं है क्योंकि अनुपलब्ध है' इस अनुमानसे अभावको ग्रहण करना भी असम्भव है, क्योंकि साध्य और साधनका अविनाभाव पहलेसे गृहीत नहीं हो पाता तथा साध्य-साधनमें कोई कार्य-कारण भाव आदि सम्बन्ध भी नहीं है। इसलिए अभावको स्वतन्त्र प्रमाण मानना चाहिए। ६५४६. अभाव प्रमाणका विषयभूत अभाव पदार्थ वस्तुरूप है तथा वह चार प्रकारका है-१ प्रागभाव, २ प्रध्वंसाभाव, ३ अन्योन्याभाव, ४ अत्यन्ताभाव । यदि ये चार अभाव न हों तो संसारमें कारण-कार्य तथा घट-पट, जीव-अजीव आदिकी प्रतिनियत व्यवस्थाका लोप होकर १.-रूपे न जायते न व्या-म. १, २, प. ., । २. द्वयोरेकतर-म. २ । ३. -दि प्रमाणप-म. २ । ४. रूपेण व्या-मा. २। ५. त्रिविधेनैवाभा-म. २। ६. भावांशेनैव द्रव्याणां म. २। "न तावदिन्द्रियरेषा नास्तीत्युत्पद्यते मतिः। भावांशेनैव संयोगो योग्यत्वादिन्द्रियस्य हि।" -मी. श्लो, अमाव. श्लो. १०। ७.-दिभि-भ.२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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