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________________ अहम् अथ षष्ठोऽधिकारः ६५१०. अथ मीमांसकमतं जैमिनीयापराह्वयं प्रोच्यते । जैमिनीया वेषेण सांख्या इवैकदण्डास्त्रिदण्डा घातुरक्तवाससो मृगचर्मोपवेशना:-कमण्डलुधरा मुण्डशिरसः संन्यासिप्रभृतयो द्विजाः। तेषां वेद एव गुरुन पुनरन्यो वक्ता गुरुः। ते एव स्वयं तव संन्यस्तं संन्यस्तमिति भाषन्ते । यज्ञो. पवीतं च प्रक्षाल्य निर्जलं पिबन्ति । 5५११. ते द्विधा, एके याज्ञिकादयः पूर्वमीमांसावादिनः, अपरे तूत्तरमीमांसावादिनः। तत्र पूर्वमीमांसावादिनः कुकर्मविजिनो, यजनादिषट्कर्मकारिणो, ब्रह्मसूत्रिणो गृहस्थाश्रमसंस्थिताः शूद्रान्नादिवर्जका भवन्ति । ते च द्वधा भाट्टाः प्राभाकराश्च षट् पञ्च प्रमाणप्ररूपिणः। ६५१२. ये तूत्तरमीमांसावादिनः, ते वेदान्तिनो ब्रह्मा तमेव मन्यन्ते । “सर्वमेतदिदं ब्री" [छान्दो. ३।१४।१] इति भाषन्ते प्रमाणं च यथा तथा वदन्ति । एक एवात्मा सर्वशरीरेषूपलभ्यत इति जल्पन्ति। - "एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥१॥ [ त्रि. ता. ५।१२] ६५१०. अब मीमांसक-जैमिनीय मतका वर्णन करते हैं । ये सांख्य परिव्राजकोंकी तरह एक-दण्डधारी और त्रिदण्डधारी होते हैं, ये गेरुआ वस्त्र पहनते हैं, मृगचर्मपर बैठते हैं, कमण्डल रखते हैं तथा सिर मुंडाते हैं। इनके संन्यासी आदि द्विज होते हैं। इनका वेद ही गुरु है, वेदके 'सिवाय अन्य कोई वक्ता सर्वज्ञ आदि गुरु नहीं है। इसलिए ये अपने-आप संन्यासदीक्षा लेते हैं। स्वयं संन्यास लेते समय ये 'तुम्हें संन्यास दीक्षा दी गयो' इस वाक्यका उच्चारण करते हैं। यज्ञोपवीतको धोकर तीन बार जल पीते हैं। ५११. ये पूर्व मीमांसावादी तथा उत्तर मीमांसावादीके भेदसे दो प्रकारके होते हैं । पूर्वमीमांसावादी यज्ञ आदि क्रियाकाण्डमें मुख्य रूपसे प्रवृत्ति करते हैं, याज्ञिक क्रियाकाण्डी हैं । ये कुकर्मोसे निवृत्त होकर यजन-याजन, अध्ययन-अध्यापन, दान और प्रतिग्रह इन छह ब्राह्मण कर्मोंका अनुष्ठान करनेवाले तथा ब्रह्मसूत्रको धारण करनेवाले होते हैं। ये गृहस्थाश्रममें रहते हैं तथा शूद्रके अन्न, जल आदिका परहेज रखते हैं। मीमांसकोंमें कुमारिल भट्टके शिष्य भाट्ट प्रत्यक्ष आदि छह प्रमाणोंको मानते हैं तथा प्रभाकर गुरुके शिष्य प्राभाकर अभाव प्रमाणके सिवाय बाकी पाँच प्रमाणोंको स्वीकार करते हैं। ६५१२. उत्तरमीमांसावादी वेदान्ती मात्र अद्वैत ब्रह्मको मानते हैं। उनका कोमी नारा है 'सर्वमेतदिदं ब्रह्म-यह सब कुछ ब्रह्मरूप है। अपनी शक्ति-भर इस अद्वैतको युक्तियोंसे सिद्ध करनेका प्रयत्न भी करते हैं । उनका कहना है कि एक ही ब्रह्म सभी प्राणियोंके शरीरमें भासमान होता है । कहा भी है-"एक ही भूतात्मा सिद्ध ब्रह्म प्रत्येक भूत-प्राणी आदिमें रम रहा है। वही १. तत एव म. १,२५.२। २. जिता यज-भ. १,२। ३. कर्मणां का-म.२। ४. सर्व खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीताथ..."-छान्दोग्योप, ३।१४।। त्रि. म. ना. ११३। "ब्रह्म खल्विदं वाव सर्वम्""-मैन्युप. ४।६।३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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