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- का० ६७. ६५०९]
वैशेषिकमतम् ।
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६५०८. अथात्राप्यनुक्तं किचिदुच्यते । व्योमादिकं नित्यम् । प्रदीपादि कियत्कालावस्थायि । बुद्धिसुखादिकं च क्षणिकम् । चैतन्यादयो रूपादयश्च धर्माः आत्मादेर्घटादेश्व धर्मिणोऽत्यन्तं व्यतिअपि समवाय संबन्धेम संबद्धाः, स च समवायो नित्यः सर्वगत एकश्च । सर्वगत आत्मा । बुद्धिसुखदुःखेच्छाधर्माधर्मप्रयत्न भावनाख्य संस्कारद्वेषाणां नवानामात्मविशेषगुणानामुच्छेदो मोक्षः । परस्परविभक्तौ सामान्यविशेषौ द्रव्यपर्यायौ च प्रमाणगोचरः । द्रव्यगुणादिषु षट्सु पदार्थेषु स्वरूपसत्त्वं वस्तुत्वनिबन्धनं विद्यते । द्रव्यगुणकर्मसु च सत्तासंबन्धो वर्तते सामान्यविशेषसमवायेषु च स नास्तीति ॥६७॥
५०९. षट्पदार्थी कणादकृता तद्भाष्यं प्रशस्तकरकृतं तट्टीका कन्दली श्रीधराचार्योंया, किरणावली तदयनसंब्धा, व्योमवतिर्व्योम शिवाचार्यविरचिता, लोलावतीतर्कः श्रीवत्साचार्ययः, आत्रेयतन्त्रं चेत्यादयो वैशेषिकतर्काः ।
इति श्रीतपागगनभोग दिनमणिश्री देव सुन्दरसू रिपदपद्मोपजीविश्री गुणरत्न सूरिकृतायां तर्करहस्यदीपिकायां षड्दर्शनसमुच्चयटीकायां वैशेषिकमत निर्णयो नाम पञ्चमोऽधिक रः ॥
५०८. मूल ग्रन्थकारने जिन बातोंका निर्देश नहीं किया है, उनका भी कुछ वर्णन इस प्रकार है - आकाश आदि नित्य हैं । दीपक आदि कुछ काल तक ठहरनेवाले - कालान्तरस्थायी हैं | बुद्धि, सुख आदि क्षणिक हैं । चैतन्य आदि धर्म आत्मासे तथा रूपादि धर्म घट आदिसे अत्यन्त भिन्न होकर भी उनमें समवाय सम्बन्धसे रहते हैं । समवाय नित्य, एक तथा सर्वगत है । आत्मा सर्वव्यापी है | बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, धर्म, अधमं, प्रयत्न, भावना नामक संस्कार और द्वेष इन आत्मा नो विशेष गुणोंका अत्यन्त उच्छेद होना मोक्ष है । सामान्य और विशेष द्रव्य गुणकर्म परस्पर भिन्न हैं । ये ही द्रव्य - सामान्य और पर्याय - विशेष परस्पर विभिन्न रहकर भी प्रमाणके विषय होते हैं । द्रव्य, गुण आदि छहों पदार्थों में 'वस्तु' व्यवहार करानेवाला स्वरूप सत्व होता है । सत्ताका समवाय मात्र द्रव्य, गुण और कर्ममें ही होता है । सामान्य विशेष और समवाय में सत्ताका समवाय नहीं होता, ये स्वरूप सत् हैं ।
५०९. कणादकृत षट्पदार्थी - वैशेषिकसूत्र, प्रशस्तकरकृत प्रशस्तपादभाष्य, श्रीधराचार्यविरचित प्रशस्तभाष्यको न्यायकन्दली टीका, उदयनाचार्यरचित किरणावली टीका, व्योमशिवाचार्यकृत व्योमवती टीका, श्रीवत्साचार्यकृत लीलावतीतर्क, आत्रेयतन्त्र आदि वैशेषिकों के प्रमुख तर्कग्रन्थ हैं ||६७||
इति तपागणरूपी आकाशके सूर्य श्री देवसुन्दर सूरिके चरण सेवक श्री गुणरत्नसूरिके द्वारा रची गयी षड्दर्शन समुच्चयको तर्करहस्य दीपिका नामकी टीकामें वैशेषिकमत के
स्वरूपका निर्णय करनेवाला पाँचवाँ अधिकार पूर्ण हुआ ।
१. सर्वगतश्च मां. २ । २. सप्तपदार्थी मां. २ । ३. इति तर्क रहस्यदीपिकायां गुणरत्नसूरिविरचितायां वैशेषिकमतप्रकटनो नाम पञ्चमः प्रकाशः भां. २ ।
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