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________________ ४२८ षड्दर्शनसमुच्चये [का०६७.६५०७स्पर्शो वारिस्थं तेजो गमयतीति । विरोधी च यथाऽहिविस्फूर्जनविशिष्टो नकुलादेलिङ्गं वह्निर्वा शीताभावस्येति । 'अस्येवम्' इति सूत्रे च कार्यादीनामुपादानं लिङ्गनिदर्शनार्थ कृतं न पुनरेतावन्त्येव लिङ्गानीत्यवधारणार्थम् । यतः कार्यादिव्यतिरिक्तान्यपि लिङ्गानि सन्ति, यथा चन्द्रोदयः समुद्रवृद्धः कुमुदविकाशस्य च लिङ्गम्, न च चन्द्रोदयः समुद्रवृद्धिकुमुदविकाशौ च मिथः कार्य कारणं वा भवन्ति, विशिष्टदिग्देशकालसंयोगात्कल्लोलपत्रविस्तारलक्षणानामुदकवृद्धिविकाशानां स्वस्व कारणेभ्य एवोत्पत्तेः। शरदि च जलस्य नैर्मल्यमगस्त्योदयस्य लिङ्गमित्यादि सत्सवं 'अस्येदम्' इति पदेन गृहीतं विज्ञेयम् । अस्य साध्यस्येदं संबन्धीति कृत्वा यद्यस्य देशकालाद्यविनाभूतं तत्तस्य लिङ्गमित्यर्थः । ततः 'अस्येवम्' इति सूत्रस्य नाव्यापकतेति । विशेषार्थिना तु न्यायकन्दली विलोकनीया। शब्दादीनां तु प्रमाणानामनुमान एवान्तर्भावात् कन्दलीकाराभिप्रायेणैतत्प्रमाणद्वितयमत्रावोचदाचार्यः । व्योमशिवस्तु प्रत्यक्षानुमानशाब्दानि त्रीणि प्रमाणानि प्रोचिवान् । उपसंहरनाह'वैशेषिकमतस्य' इत्यादि । वैशेषिकमतस्यैषोऽनन्तरोक्तः संक्षेपः परिकीर्तितः-कथितः। जाता है। वर्षा होगी क्योंकि बरसानेवाले काले-काले विशिष्ट मेघ घिर आये हैं। धूम अग्निका संयोगी है अतः धूमको देखकर अग्निका अनुमान संयोगी अनुमान है। गरमजलके उष्ण स्पर्शसे जलमें प्रविष्ट अग्निका अनुमान समवायो अनुमान है । उष्णस्पर्श अग्निका समवायी है। फुफकारते हुए सांपको देखकर समीपमें नोलेका अनुमान अथवा अग्निसे ठण्डके अभावका अनुमान विरोधी अनुमान है । 'अस्येदम्' इस सूत्रमें कार्य-कारण आदि कुछ हेतुओंका नाम तो उदाहरणके निमित्त ही लिये गये हैं, उससे यह नियम नहीं करना चाहिए कि-कार्य आदि पांच ही लिंग हैं; क्योंकि कार्य आदि हेतओंसे भिन्न भी सैकड़ों हेतु होते हैं जो अपने अविनाभावी साध्यका यथार्थ अनमान कराते हैं। जैसे चन्द्रका उदय समुद्रके ज्वार-भाटे तथा कुमुदके प्रफुल्लित होनेका अनुमान कराता है। यह चन्द्रोदय न तो समुद्रवृद्धि और कुमुद विकासका कार्य ही है और न कारण ही। अमुक दिशा देश काल आदिके संयोगसे चन्द्रका उदय, समुद्रकी लहरें तथा कमलके पत्तोंका फैलाव स्वतन्त्रभावसे अपने-अपने कारणोंसे ही उत्पन्न होते हैं । हां, इनमें अविनाभाव अवश्य है भता इसीके बलसे चन्द्रोदयसे उनका अनुमान हो जाता है। इसी तरह शरद् ऋतुमें जलकी निर्मलतासे अगस्त्यके उदयका अनुमान होता है । यह जलकी निर्मलता अमुक वायु आदि कारणोंसे उत्पन्न होकर भी अविनाभाव सम्बन्धके कारण अगस्त्योदयका अनुमान करा देती है । अगस्त्योदय और शरत्कालीन जलकी निर्मलतामें परस्पर कोई कार्य-कारण भाव नहीं है, दोनों ही अपने-अपने कारणोंसे उत्पन्त होते हैं। ये सभी कार्य-कारण आदिसे अतिरिक्त लिंग 'अस्येदम्'-'यह इसका सम्बन्धी है' इस सामान्य अविनाभाव सूचक पदसे गृहीत हो जाते हैं। 'इस साध्यका यह सम्बन्धी है' इस रूपसे जो जिसके देश-काल आदिसे अविनाभाव रखता है वह उसका लिंग होता है । अतः 'अस्येदम् सूत्रसे समस्त लिंगोंका संग्रह हो जानेके कारण यह अव्याप्त-अपर्याप्त नहीं है किन्तु सर्वथा पूर्ण है । इनका विशेष विवरण प्रशस्तपाद भाष्यको न्यायकन्दली टीकासे देखना चाहिए। आगम आदि प्रमाण भी अपने सम्बन्धी पदार्थसे परोक्ष अर्थकी प्रतिपत्ति करानेके कारण अनुमानमें ही अन्तर्भूत हैं। प्रमाणोंकी यह दो संख्या कन्दलीकार श्रीधर आचार्यके मतसे कही गयी है। व्योमवतो टीकाकार व्योमशिवाचार्य तो प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणोंको मानते हैं । इस तरह यह वैशेषिक मतका संक्षिप्त कथन है। १. यथाज्यहविविस्फू-म. २ । २. कवृष्टिविका-म. २ । ३. दयलि-म. २ । ४. यद्यविनाभूतं म.। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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