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________________ -का० ६७.६५०७] वैशेषिकमतम् । . ४२७ ६५०६. 'योगजमपि प्रत्यक्षं द्वधा, युक्तानां प्रत्यक्षं वियुक्तानां.चे। तत्र युक्तानां समाधिमैकाग्रचमाश्रितानां योगजधर्मबलादन्तःकरणे शरीराबहिनिर्गत्यातीन्द्रियार्थैः समं संयुक्ते सति यदतीन्द्रियार्थदर्शनं तद्युक्तानां प्रत्यक्षम् । ये चात्यन्तयोगाभ्यासोचितधर्मातिशयादसमाधि प्राप्ता अप्यतीन्द्रियमयं पश्यन्ति, ते वियुक्ताः । तेषामात्ममनहन्द्रियार्थसंनिकर्षाद्देशकालस्वभावविप्रकृष्टार्थग्राहकं यत्प्रत्यक्षं तद्वियुक्तानां प्रत्यक्षम् एतच्चोत्कृष्टयोगिनोऽवसेयं, योगिमात्रस्य तदसंभवादिति । विस्तरस्तु न्यायकन्दलीतो विज्ञेयः। ६५०७. लैङ्गिकस्य पुनः स्वरूपमिदम्। लिङ्गदर्शनाद्यदव्यभिचारित्वादिविशेषणं ज्ञानं तद्यतः परामर्शज्ञानोपलक्षितात्कारकसमूहाद्भवति तल्लैङ्गिकमनुमानमिति यावत्। तच्चैवं भवति । “अस्येदं कार्य कारणं संयोगि समवाय विरोधि चेति लैङ्गिकम् ।" [ वैशे. सू. ९।२।१] तत्र कार्य कारणपूर्वकत्वेनोपलम्भादपलभ्यमानं कारणस्य गमकं, यथायं नदीपुरो वष्टिकार्यो 'विशिष्टनदीपूरत्वात् पूर्वोपलब्धविशिष्टनदीपूरवत् । कारणमपि कार्यजनकत्वेन पूर्वमुपलब्धरुपलभ्यमानं कार्यस्य लिङ्गं यथा विशिष्टमेघोन्नतिवर्षकर्मणः। तथा धूमोऽग्नेः संयोगी। समवायो चोष्ण - ६५०६. योगज प्रत्यक्ष भी दो प्रकारका है-एक तो युक्त योगियोंका और दूसरा वियुक्त योगियोंका। समाधिमें अत्यन्त तल्लीन एकाग्रध्यानी योगियोंका चित्त योगसे उत्पन्न होनेवाले विशिष्ट धर्मके कारण शरीरसे बाहर निकलकर अतीन्द्रिय पदार्थोंसे संयुक्त होता है। इस संयोगसे जो उन युक्त-ध्यानमग्न योगियोंको अतीन्द्रिय पदार्थोंका ज्ञान होता है उसे युक्तयोगि प्रत्यक्ष कहते हैं। जो योगी समाधि-उपयोग लगाये बिना ही चिरकालीन तीन योगाभ्यासके कारण सहज ही अतीन्द्रिय पदार्थों को देखते-जानते हैं वे वियुक्त कहलाते हैं। इन पुराने योगियोंके अपने दोघे योगाभ्याससे ऐसी विशिष्ट शक्ति प्राप्त हो जाती है जिससे वे सदा अतीन्द्रियार्थोंका दर्शन करते हैं। उन्हें इसके लिए किसी समाधि आदिके लगानेकी आवश्यकता नहीं होती। इन वियुक्त-समाधिमें लीन न होकर भी विशिष्ट शक्ति रखनेवाले–योगियोंको आत्मा मन इन्द्रिय और पदार्थके सन्निकर्षसे दूर देशवर्ती अतीत और अनागतकालीन तथा सूक्ष्म परमाणु आदि अतीन्द्रिय पदार्थोंका जो ज्ञान होता है वह वियुक्त-योगिप्रत्यक्ष है। यह उत्कृष्ट योगियोंके ही होता है, योगिमात्रको इसके होनेका नियम नहीं है । इसका विस्तृत वर्णन न्यायकन्दलीमें देखना चाहिए। ५०७. लिंगको देखकर जो अव्यभिचारी-निर्दोष ज्ञान उत्पन्न होता है उसे अनुमिति कहते हैं। यह अनुमिति जिस परामर्श-व्याप्ति-विशिष्ट-पक्षधर्मताज्ञान आदि कारक समुदायसे उत्पन्न होती है उस अनुमितिके कारणको लैंगिक-अनुमान कहते हैं। यह अनुमान कार्य-कारण आदि अनेक प्रकारका होता है। 'यह इसका सम्बन्धी है' इस नियत सम्बन्धितापूर्वक होनेवाले कार्यकारण संयोगी समवायी विरोधी आदि अनेक प्रकारके अनुमान हैं। कार्य सदा कारणपूर्वक देखा जाता है, बिना कारणके कार्यको उत्पत्ति नहीं होती अतः कार्यको देखकर कारणका अनुमान होता है । जैसे—यह नदीको बाढ़ वृष्टिके कारण आयो है क्योंकि यह विशिष्ट वृष्टिसे होनेवाली तिनके लकड़ी आदिको बहानेवाली फेनयुक्त बाढ़ है जैसे गत बरसातमें आयी हुई नदीकी बाढ़ । कारण भी कार्यको उत्पन्न करता है। कई बार अविकल तथा अप्रतिबद्ध सशक्त कारणको कार्य उत्पन्न करते हुए देखा है । अतः आज भी कारणको देखकर कार्यका अनुमान हो १. अस्मद्विशिष्टानां तु योगिनां युक्तानां योगजधर्मानुगृहीतेन मनसा स्वात्मान्तराकाशदिक्कालपरमाणुवायुमनस्सु तत्समवेतगुणकर्मसामान्यविशेषेषु समवाये चावितथं स्वरूपदर्शनमुत्पद्यते वियुक्तानां पुनश्चतुष्टयसंनिकर्षाद्योगजधर्मानुग्रहसामर्थ्यात् सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टेषु प्रत्यक्षमुत्पद्यते ।"-प्रश. भा. पृ. ९.। २. च समाधि-म..। ३. ये त्वत्यन्तयोगाभ्यासो धर्मा-म, २, ये त्वत्यन्तयोगाभ्याससेवितधर्मा-म..,ये त्वत्यन्तयोगाभ्यासोषितधर्मा-प. १,३।४. पूरत्वात् कारणमपि भ.२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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