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________________ ४२६ षड्दर्शनसमुच्चये [का०६७.६५०४६५०४. अथ प्रमाणसंख्यां प्राह प्रमाणं च द्विधामीषां प्रत्यक्षं लैङ्गिक तथा । वैशेषिकमतस्यैष संक्षेपः परिकीर्तितः ॥६७॥ $ ५०५, व्याख्या-अमीषां-वैशेषिकाणां प्रमाणं द्विधा-द्विविधम् । चः पुनरर्थे । कथ. मित्याह 'प्रत्यक्षं । तथेति समुच्चये। लिङ्गाज्जातं लैङ्गिकं च तत्र प्रत्यक्ष द्वेधा, ऐन्द्रियं योगजं च । ऐन्द्रियं-घ्राणरसनचक्षुस्त्वक्श्रोत्रमनःसंनिकर्षजमस्मदादीनां प्रत्यक्षम् । तवेधा, निर्विकल्पकं सविकल्पकं च । तत्र वस्तुस्वरूपालोचनमात्रं निर्विकल्पकम् । तच्चे न सामान्यमानं गृह्णाति भेदस्यापि प्रतिभासनात्, नापि स्वलक्षणमात्रं सामान्याकारस्यापि संवेदनात्, व्यक्त्यन्तरदर्शने प्रतिसंधानाच्च, किं तु सामान्यं विशेषं चोभयमपि गृह्णाति, परमिदं सामान्यमयं विशेष इत्येनं विविच्य न प्रत्येति, सामान्यविशेषसंबन्धिनोरनुवृत्तिव्यावृत्तिधर्मयोरग्रहणात् । सविकल्पकं तु सामान्यविशेषरूपता विविच्य प्रत्येति, वस्त्वन्तरैः सममनुवृत्तिव्यावृत्तिधर्मों प्रतिपद्यमानस्यात्मन इन्द्रियद्वारेण तथाभूतप्रतीत्युपपत्तेः। $ ५०४. अब प्रमाणकी संख्या बताते हैं वैशेषिक लोग प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो प्रमाण मानते हैं। इस तरह वैशेषिक मतका संक्षेपसे निरूपण हुआ ॥६७॥ ६५०५. इन वैशेषिकोंके यहां दो प्रकारके प्रमाण हैं । च - फिर । 'तथा' शब्द समुच्चयार्थक है। प्रत्यक्ष तथा लिंगसे उत्पन्न होनेवाला लैंगिक-अनुमान ये दो प्रमाण हैं। प्रत्यक्ष दो प्रकारका है-१ इन्द्रियज, २ योगज । हम लोगोंको नाक, जोभ, आंख, कान, मन और स्पर्शन इन्द्रियोंके सन्निकर्षसे होनेवाला इन्द्रिय प्रत्यक्ष है। इन्द्रिय-प्रत्यक्ष भी दो प्रकारका है-१ निर्विकल्पक, २ सविकल्पक । वस्तुके स्वरूपका साधारणरूपसे आलोचन करनेवाला ज्ञान निर्विकल्पक है। यह केवल सामान्य या मात्र विशेषको हो विषय नहीं करता। इसमें सामान्य की तरह विशेष आकारका भी भान होता है। दूसरी व्यक्तिको देखकर 'यह उस जैसी है' इतर प्रत्यभिज्ञानसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि निविकल्पकमें स्वलक्षण विशेषकी तरह सामान्य - साधारण धर्मोंका भी प्रतिभास होता है। इस तरह निर्विकल्पकमें सामान्य और विशेष दोनोंका भान होनेपर भी 'यह सामान्य है तथा यह विशेष है', 'यह इसके समान है तथा इससे विलक्षण है' इस तरह सामान्य और विशेषका पृथक्-पृथक् प्रतिभास नहीं होता। इसमें सामान्य और विशेष सम्बन्धी अनुगत धर्म तथा व्यावृत्तधर्मोंका परिज्ञान नहीं होता। यही कारण है कि निर्विकल्पकमें 'यह घड़ा है' इत्यादि शब्दात्मक व्यवहार नहीं होते। सविकल्पक प्रत्यक्ष सामान्य और विशेषका पूरा-पूरा पृथक्करण करता है। यह उससे समान है यह उससे विलक्षण है' इस रूपसे अनुगत और व्यावृत्त धर्मोको जाननेवाले आत्माको इन्द्रियोंसे सविकल्पक ज्ञान उत्पन्न होता है। १. "द्रव्ये तावद् त्रिविधे महत्यनेकद्रव्यतत्त्वोद्भूतरूपप्रकाशचतुष्टयसंनिकर्षाद् धर्मादिसामग्रथे च स्वरूपालोचनमात्रम् सामान्यविशेषद्रव्यगुणकर्मविशेषणापेक्षादात्मनः संनिकर्षात् प्रत्यक्षमुत्पद्यते सद् द्रव्यं पृथिवी विषाणी शक्लो गौर्गच्छतीति ।" -प्रश. मा. पृ. ९५। २. तच्च सा-म,२। ३. ति ( यदि ) परमिदं आ.,-ति यदि परमिदं म. १, प. १, २, क.,-ति यदपरमिदं भ. २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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