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________________ -का०६६.६५०३]. वैशेषिकर्मतम् । ४२५ नामिति यावत् आधाराश्चाधेयाश्च आधाराधेया ते भवन्ति स्म । 'आधाराधेयभूताः' तेच ते भावा. श्वार्थाः तेषां यः 'संबन्ध इह प्रत्ययहेतुः इह तन्तुषु पटः इत्यादेः प्रत्ययस्यासाधारणं कारणं 'स हि' स एव भवति समवायः' संबन्धः। यतो होह तन्तुष पटः, इह पटद्रव्ये गुणकर्मणी, इह द्रव्यगुणकर्मसु सत्ता, इह द्रव्ये द्रव्यत्वं, इह गुणे गुणत्वं, इह कर्मणि कर्मत्वं, इह द्रव्येष्वन्त्या विशेषा इत्यादि विशेषप्रत्यय उत्पद्यते, स पञ्चभ्यः पदार्थेभ्योऽर्थान्तरं समवाय इत्यर्थः। स चैको विभुनित्यश्च विज्ञेयः॥६६॥ ६५०३. तदेवं षट्पदार्थस्वरूपं प्ररूपितम् । संप्रति प्रमाणस्य सामान्यतो लक्षणमाख्यायते। अर्थोपलब्धिहेतुः प्रेमाणमिति। अस्यायमर्थः-अव्यभिचारादिविशेषणविशिष्टार्थोपलब्धिजनिका सामग्री तदेकदेशो वा बोधरूपोऽबोधरूपो वा ज्ञानप्रदीपादिः साधकतमत्वात्प्रमाणम् । एतत्कार्यभूता वा यथोक्तविशेषणविशिष्टार्थोपलब्धिः प्रमाणस्य सामान्यलक्षणं, तया स्वकारणस्य प्रमाणाभासेभ्यो व्यवच्छिद्यमानत्वात् । इन्द्रियजत्वलिङ्गजत्वादिविशेषणविशेषिता सैवोपलब्धिः प्रमाणस्य विशेषलक्षणमिति । यह अर्थ हुआ कि-वैशेषिक दर्शनमें अयुतसिद्ध-अपृथक्सिद्ध-जिन पदार्थों की भिन्न-भिन्न स्थिति नहीं है, जो तन्तु और पटकी तरह अभिन्न आश्रयमें ही रहते हैं भिन्न-भिन्न आधारोंमें नहीं रहते उन आधार-आधेयभूत पदार्थों में 'इन तन्तुओंमें कपड़ा है' इत्यादि प्रत्ययका जो सम्बन्ध असाधारण कारण होता है उसे समवाय कहते हैं । इस समवायसे ही 'इन तन्तुओंमें कपड़ा है, इस पटमें गुण और क्रिया है, इन द्रव्य-गुण-कर्ममें सत्ता है, इस द्रव्यमें द्रव्यत्व है, इस गुणमें गुणत्व है, इस कर्ममें कर्मत्व है, इन नित्य द्रव्योंमें विशेष हैं' इत्यादि इहेदं प्रत्यय उत्पन्न होते हैं। अतः अवयव-अवयविभूत द्रव्योंमें गुण और गुणीमें क्रिया और क्रियावान्में, सामान्य और सामान्यवान्में, विशेष और विशेषवान् पदार्थों में रहनेवाला नित्य सम्बन्ध द्रव्यादि पाँच पदार्थोसे पृथक् है । यह एक, नित्य तथा व्यापक है ॥६६॥ ५०३. इस तरह षट् पदार्थों के स्वरूपका निरूपण करके अब प्रमाणका सामान्य लक्षण कहते हैं। अर्थोपलब्धिमें जो पदार्थ कारण होते हैं वे सभी प्रमाण हैं। अव्यभिचारी आदि विशेषणोंसे युक्त अर्थोपलब्धिको उत्पन्न करनेवाली ज्ञानरूप या अज्ञानरूप पूरी सामग्री या सामग्रीका एकदेश साधकतम होनेसे प्रमाण है । इस सामग्रीमें बोधरूप ज्ञान आदि तथा अचेतन दीपक आदि सभी शामिल हैं। पूरी सामग्री तथा उसका एक-एक भी हिस्सा अर्थोपलब्धि साधकतम होनेसे प्रमाणभत है। अथवा इस सामग्रीसे उत्पन्न होनेवाली निर्दोष अर्थोपलब्धि ही प्रमाणका सामान्यलक्षण है। यह निर्दोष अर्थोपलब्धि अपनी कारणभूत सामग्रीको प्रमाणाभाससे व्यावृत्त कराती है। यही अर्थोपलब्धि जब इन्द्रियोंसे उत्पन्न होती है तब प्रत्यक्ष कही जाती है तथा जब यह लिंगसे उत्पन्न होती है तब अनुमान कही जाती है । तात्पर्य यह कि सामान्य अर्थोपलब्धि ही इन्द्रियजत्व और लिंगजत्व विशेषणसे विशिष्ट होकर प्रत्यक्ष और अनुमानरूप प्रमाणविशेषका लक्षण हो जाती है। १. "उपलब्धिहेतुश्च प्रमाणं ।"-न्यायमा. पृ. ९९ । न्यायवा. पृ. ५। २. "अव्यभिचारिणीमसंदिग्धामर्थोपलब्धि विदधती बोधाबोधस्वभावा सामग्री प्रमाणम् ।"-न्यायमं, प्रमाण. प. १२॥ ३. वा बोधोरूपो वा म.२,क.। ४.-ता यथोक्त-म.२। ५. -जत्वादिविशेषिता सै-प.१,२। -जत्वादिविशेषणविशिष्टा सैन्म. १,२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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