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________________ ४२४ षड्दर्शनसमुच्चये [का० ६५. १५००णोऽयं विलक्षणोऽयमिति प्रत्ययव्यावृत्तिः, देशकालविप्रकृष्टे च परमाणौ स एवायमिति प्रत्यभिज्ञानं च भवति, तेऽन्त्या विशेषाः ।" [प्रश. भा. पृ. १६८] इति । ५००. अन्ये तु 'नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या विशेषाः' इति सूत्रमेवं व्याचक्षते । नित्यद्रव्येष्वेव वृत्तिरेव येषामिति सावधारणं वाक्यमेतत् । नित्यद्रव्यवृत्तय इति पदमन्त्यपदस्य विवरणमेतत्, तथा चोक्तम्-नित्यद्रव्याण्युत्पत्तिविनाशयोरन्ते व्यवस्थितत्वादन्तशब्दवाच्यानि तेषु भवास्तवृत्तयो विशेषा अन्त्याः [ ] इत्याख्यायन्त इति । अमी चात्यन्तव्यावृत्तिहेतवो द्रव्यादिभ्यो वैलक्षण्यात्पदार्थान्तरम् ॥६५॥ १०१. अथ समवायं स्वरूपतो निरूपयति___ य इहायुतसिद्धानामाधाराधेयभूतभावानाम् । संबन्ध इह प्रत्ययहेतुः स हि भवति समवायः ॥६६॥ ६५०२. व्याख्या-केचिद्धातुपारायणकृतो 'यु अमिश्रणे' इति पठन्ति, तत एवायुतसिद्धानामित्यादि वैशेषिकीयसूत्रे अयुतसिद्धानामपृथसिद्धानामिति व्याख्यातम् । तथा लोकेऽपि भेदाभिधायी युतशब्दः प्रयुज्यमानो दृश्यते, द्वावपि भ्रातरावेतौ युतौ जातावित्यादि । ततोऽयमत्रार्थः । 'इह' वैशेषिकदर्शने 'अयुतसिद्धानाम्' अपृथसिद्धानां, "तन्तुष समवेतपटवत् पृथगाश्रयानाश्रिता. आदिमें 'यह विलक्षण है यह विलक्षण है' यह विलक्षण बुद्धि होती है उन्हें अन्त्य विशेष कहते हैं। इसो विशेष पदार्थके कारण पहले देखे गये परमाणुमें देशान्तर तथा कालान्तरमें 'यह वही परमाणु है' यह प्रत्यभिज्ञान भी निर्बाध रूपसे होता है। ५००. कोई व्याख्याकार "नित्यद्रव्यमें रहनेवाले अन्त्य विशेष हैं; इस सूत्रमें 'नित्यद्रव्यवत्तय:' को अन्त्यपदका विवरण मानकर ऐसा व्याख्यान करते हैं-" नित्यद्रव्यमें हो इन विशेषोंकी वृत्ति ही है, इस तरह 'नित्यद्रव्यवृत्तयः' पद उभयतः अवधारणात्मक-निश्चयात्मक है। 'नित्यद्रव्यवृत्तयः' पद अन्त्यपदका विवरण-खुलासा अर्थ बताता है। कहा भी है-नित्यद्रव्य उत्पाद और विनाशसे परे हैं अतः इन्हें 'अन्त' कहते हैं। 'अन्त' में रहनेवाले अर्थात् नित्यद्रव्यमें रहनेवाले विशेष पदार्थ 'अन्त्य' भी कहे जाते हैं।" ये विशेष पदार्थ अत्यन्त व्यावृत्त बुद्धि करानेके कारण द्रव्यादिपदार्थोंसे विलक्षण हैं, स्वतन्त्र पदार्थ हैं ॥६५॥ $ ५०१. अब समवायके स्वरूपका वर्णन करते हैं अयुतसिद्ध और आधाराधेयभूत पदार्थोंके यह इसमें हैं' इस इहेदं प्रत्ययमें कारणभूत सम्बन्ध समवाय कहलाता है ।।६६।। ६५०२. कोई धातुपाठी 'यु' धातुका अमिश्रण अर्थमें भी पाठ करते हैं। इसीलिए वैशेषिक सूत्रके 'अयुतसिद्धानाम्' पदका व्याख्याकारोंने 'अपृथक् सिद्ध' अर्थ किया है। लोक व्यवहार में भी युतशब्दका फलित अर्थ भेद ही होता है । जैसे 'ये दोनों भाई युत-इकटे उत्पन्न हुए हैं। इसका अर्थ ही है कि दोनोंकी सत्ता पृथक्-पृथक् है दोनों भिन्न-भिन्न हैं। युत-संयुक्त तो दो भिन्न सत्तावाले ही पदार्थ हो सकते हैं एकमें तो संयुक्त या युत व्यवहार नहीं देखा जाता। इसलिए श्लोकका १. -णोऽयमिति भ. २, क.। २. "उत्पादविनाशयोरन्तेऽवसाने भवन्तीत्यन्त्या नित्यद्रव्याणि तेषु भवन्तीत्यन्त्या विशेषा इति वृत्तिकृतः ।"-वैशे. उप, १।६। ३.-न्ते नित्यं द्रव्यवृत्तय इति हेतवो भ. २ । ४. "अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानां यः संबन्ध इह प्रत्ययहेतुः स समवायः । एवं धर्मविना धर्मिणामुद्देशः कृतः।"-प्रश. मा. पृ. ५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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