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-का० ६५ ६ ४९९] वैशेषिकमतम् ।
४२३ द्रव्येषु विनाशारम्भरहितेष्वण्वाकाशकालदिगात्ममनःसु वृत्तिवर्तनं यस्य स नित्यद्रव्यवृत्तिः। तथा परमागूनां जगद्विनाशारम्भकोटिभूतत्वात् मुक्तात्मनां मुक्तमनसां च संसारपर्यन्तरूपत्वादन्तत्वम्, अन्तेषु भवोऽन्त्यो विशेषो विनिर्दिष्टः-प्रोक्तः, अन्तेषु स्थितस्य विशेषस्य स्फुटतरमालक्ष्यमाणत्वात् । वृत्तिस्तु तस्य सर्वस्मिन्नेव परमाण्वादौ नित्ये द्रव्ये विद्यत एव । अत एव नित्यद्रव्यवृत्तिरन्त्य इत्युभयपदोपादानम् । विशेषश्च द्रव्यं द्रव्यं प्रत्येकैक एव वर्तते नानेकः, एकेनैव विशेषण स्वाश्रयस्य व्यावृत्तिसिद्धरनेकविशेषकल्पनावैयर्थ्यात् । सर्वनित्यद्रव्याण्याश्रित्य पुनविशेषाणां बहुत्वेऽपि जातावत्रैकवचनम् । तथा च प्रशस्तकरः
६४९९. "अन्तेषु भवा अन्त्याः, स्वाश्रयस्य 'विशेषकत्वात् विशेषाः, विनाशारम्भरहितेषु नित्यद्रव्येष्वण्वाकाशकालदिगात्ममनःसु प्रतिद्रव्यमेकशो वर्तमाना अत्यन्तव्यावृत्तिबुद्धिहेतवः, यथास्मदादीनां गवादिष्वश्वादिभ्यस्तुल्याकृतिगुणक्रियावयैवसंयोगनिमित्ता प्रत्ययव्यावृत्तिर्दष्टा, यथा गौः शुक्लः शीघ्रगतिः पीनककुमान्, महाघण्ट इति । तथास्मद्विशिष्टानां योगिनां नित्येषु तुल्याकृतिगुणक्रियेषु परमाणुषु मुक्तात्ममनःसु चान्यनिमित्तासंभवाद्येभ्यो निमित्तेभ्यः प्रत्याधारं विलक्षहै। मन्त-आखिरी चीजोंमें रहनेवाला अन्त्य कहलाता है । संसारका प्रलय होनेपर तथा संसारको
में परमाण ही परमाण पाये जाते हैं अतः इनको अन्त' कहते हैं। इसी तरह मक्त जीवोंकी आत्माएं तथा मुक्त जीवोंके मन भी संसारका अन्त कर चुके हैं अतः ये भी 'अन्त' कहे जाते हैं। इन सभी अन्त-आखिरी चीजों में विशेष पदार्थ व्यावृत्त बुद्धि कराता है, इनमें उसका रहना है अतः यह 'अन्त्य' कहा जाता है । इन अन्त-आखिरो अवस्थामें मिलनेवाले परमाणु आदिमें विशेष पदार्थका कार्य साफ-साफ मालूम होता है; क्योंकि ये सभी परमाणु आदि तुल्यगुण, तुल्य क्रिया तथा तुल्य आकृति आदि वाले हैं, अतः इनमें अन्य निमित्तोंसे व्यावृत्त बुद्धि तो हो ही नहीं सकती। इसलिए इनमें विशेषपदार्थ ही व्यावृत्त बुद्धि कराता है और योगियोंको वह इनमें साफ-साफ दिखाई देता है। यह विशेष पदार्थ सभी परमाणु आदि नित्य द्रव्योंमें रहता है पर 'अन्त'-आखिरी पदार्थों में इसका स्फटतर प्रतिभास होता है अतः नित्यद्रव्यवत्ति और अन्त्य' दोनों विशेषण दिये गये हैं। प्रत्येक नित्य द्रव्यमें एक-एक ही विशेष पदार्थ रहता है अनेक नहीं। जब इस एक ही विशेषसे उस नित्य द्रव्यकी अन्य पदार्थोंसे व्यावृत्ति हो जातो है तब उसमें अनेक विशेष मानना निरर्थक ही है। इस तरह सभी नित्य द्रव्योंमें एक-एकके हिसाबसे कुल विशेष अनन्त हैं फिर साधारण रूपसे कथन करनेके लिए 'विशेषः' इस एकवचनका प्रयोग संग्रहकी अपेक्षा किया है।
$ ४९९. प्रशस्तपाद भाष्यकारने कहा है कि-"विशेष अन्त-आखिरी वस्तुओंमें रहने के कारण अन्त्य हैं । अपने आश्रयभूत पदार्थको अन्यसे व्यावृत्ति कराते हैं इसलिए विशेष-भेदक हैं। ये उत्पाद और विनाशसे रहित परमाणु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन इन नित्यद्रव्योंमें प्रत्येकमें एक-एक करके रहते हैं और अत्यन्त व्यावृत्त बुद्धि कराने में कारण होते हैं। जिस तरह हम लोगोंको गो आदिमें अश्व आदिसे जाति, आकृति, गुण, क्रिया, विशिष्ट अवयव, गलेमें घण्टो आदिके संयोग आदिसे विलक्षण बुद्धि होती है कि 'यह गो है, सफेद है, जल्दी चलती है, इसके बडो कांधौर है. इसके गले में घण्टा बंधा है उसी तरह हम लोगोंसे विशिष्ट ज्ञानवाले योगियोंको समानआकृति, समानगुण तथा समानक्रियावाले नित्य परमाणुओंमें मुक्तात्माओं तथा मुक्तजीवोंके मनोंमें अन्य जाति आदि व्यावर्तक निमित्तोंका अभाव होनेसे जिनके कारण प्रत्येक परमाणु
१. षत्वात् भ. २ । २. -यविसंयोगिनि-म, २ । यवसंयोगिनि- म. १, प. १, २। ३. पीनः ककुम. १, २, प.१,२। ४. महाषण्डः भ.२ । ५.-षु मु- म. ३। .
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