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________________ -का० ६७ ६ ५१२] मीमांसकमतम् । ४३१ इति' धचनात् । “पुरुष एवेदं सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यम्" [ ऋक्. १०९०१२ ] इति वचनाच्च । आत्मन्येव लयं मुक्तिमाचक्षते, न स्वपरां कामपि मुक्ति मन्यन्ते। ते च द्विजा एव भगवन्नामधेयाश्चतुर्धाभिधीयन्ते कुटीचर-बहूदक-हंस-परमहंस-भेदात् । तत्र त्रिदण्डी सशिखो ब्रह्मसूत्री गृहत्यागी यजमानपरिग्रही सकृत्पुत्रगृहेऽश्नन् कुट्यां निवसन् कुटीचर उच्यते। कुटोचरतुल्यवेषो विप्रगेहनैराश्यभिक्षाशनो विष्णुजापपरो नवीनीरस्नायो बहूदकः कथ्यते । ब्रह्मसूत्रशिखाभ्यां रहितः कषायाम्बरदण्डधारी ग्रामे चैकरात्रं नगरे च त्रिरात्रं निवसन् विधूमेषु विगताग्निषु विप्रगेहेषु भिक्षां भुञ्जानस्तपःशोषितविग्रहो देशेषु भ्रमन् हंसः समुच्यते। हंस एवोत्पन्नज्ञानश्चातुर्वर्ण्यगेहभोजी स्वेच्छयो दण्डधार ईशानी दिशं गच्छन् शक्तिहीनतायामनशनग्राही वेदान्तकध्यायी परमहंसः एक रूपसे तथा अनेक रूपसे जलमें चन्द्रमाकी तरह चमचमाता है।" "जो कुछ हो चुका तथा जो होनेवाला है वह सब ब्रह्म ही है" ब्रह्ममें लय हो जाना ही मुक्ति है। इस ब्रह्मलयावस्थाके सिवाय अन्य किसी प्रकारकी मुक्ति वेदान्तियोंको इष्ट नहीं है । ये ब्राह्मण ही होते हैं तथा 'भगवत्' शब्दसे पुकारे जाते हैं। इनके कुटीचर, बहूदक, हंस और परमहंस ये चार भेद होते हैं। त्रिदण्डधारी, शिखा रखनेवाले, ब्रह्मसूत्रको धारण करनेवाले, यजमानोंके यहां भोजन करनेवाले, घरको त्यागकर कुटिया बनाकर रहनेवाले कुटीचर कहे जाते हैं। ये एकाध बार अपने पुत्रके यहां भी भोजन कर लेते हैं । बहूदकोंका वेष कुटीचरोंके समान ही होता है। ये ब्राह्मणोंके घर भिक्षावृत्तिसे नीरस भोजन करते हैं, विष्णुको जपते हैं। बहूदक-बहुत जलवाली नदीमें स्नान करने के कारण बहूदक कहे जाते हैं । हंस साधु ब्रह्मसूत्र तथा शिखा नहीं रखते, ये कषायले वस्त्र पहनते हैं, दण्ड धारण करते हैं, गांवमें एक रात तथा नगरमें तीन रात निवास करते हैं, धुआं निकलना बन्द हो जानेपर, आग बुझ जानेपर ब्राह्मणोंके घर भिक्षावृत्तिसे भोजन करते हैं। ये कठिन तपस्याओंसे शरीरको कृश करके देश-विदेश विहार करते रहते हैं । हंस साधुओंको जब तत्वज्ञान उत्पन्न हो जाता है तब वे ही परमहंस कहे जाते हैं। परमहंस साधु ब्राह्मण-शूद्र चारों वर्गों के यहां भिक्षाभोजन करते हैं। ये इच्छानुसार कभी दण्ड ले भी लेते हैं कभी नहीं भी लेते । जब ये अशक्त हो, जाते हैं तब ईशान दिशामें जाकर अनशन-उपवास ग्रहण कर लेते हैं । इनके अध्ययनका एकमात्र १. ब्र. वि. ११। २. एवेदं क.। ३. मन्वते भ. २। ४. "कुटीचरो ब्रह्मचारी कुटुम्ब विसृजेत् । पात्रं विसृजेत् । पवित्रं विसृजेत् । दण्डाल्लोकांश्च विसृजेदिति होवाच । अत ऊर्ध्वममन्त्रवदाचरेत् । ऊर्ध्वगमनं विसजेत् । औषधवदशनमाचरेत् । त्रिसंध्यादो स्नानमाचरेत् । संधि समाधावात्मन्याचरेत् । सर्वेषु वेदेष्वारण्य कमावर्तयेदुपनिषदमावर्तयेदुपनिषदमावर्तयेदिति ॥"-आरुणि.२। "कुटीचको बहुदको हंसः परमहंसः तुरीयातीतोऽवधूतश्चेति । कुटीचकः शिखायज्ञोपवीती दण्डकमण्डलु बरः कोपीनकन्थाधरः पितमातृगुराधनपरः पिठरखनित्रशिख्यादिमन्त्रसाधनपर एकत्रान्नादनपरः श्वेतोर्ध्वपुण्डधारी त्रिदण्डः । बहूदकः शिखादिकन्थाधरस्त्रिपुण्डधारी कुटोचकवत्सर्वसमो मधुकरवृत्त्याष्टकवलाशी हंसो जटाधारी त्रिपुण्डोऽर्ध्वपुण्डवारी असंक्लप्तमाधुकरानाशी कोपीनखण्डतुण्डधारी । परमहंसः शिखायज्ञोपवीतरहितः पश्चगहेष्वेकरात्रान्नादनपरः करपात्री एककौपीनधारी शाटीमेकामेकं वैणवं दण्डमेशाटीघरो वा भस्मोद्धलनपरः सर्वत्यागी । तुरीयातीतो गोमुखः फलाहारी । अन्नाहारी चेद्गृहत्रये देहमात्रावशिष्टो दिगम्बरः कुणपवच्छरीरवृत्तिकः । अवधूतस्त्वनियमोऽभिशस्तपतितवर्जनपूर्वकं सर्ववर्णेष्वजगरवृत्त्याहारपरः स्वरूपानुसंधानपरः । आतुरो जीवति चेत् क्रमसंन्यासः कर्तव्यः कुटीचकबहुदकहंसानां ब्रह्मचर्याश्रमादितुरीयाश्रमवत् कटीचकादीनां संन्यासविधिः । परमहंसादित्रयाणां च कटिसूत्र न कोपीनं न वस्त्रं न कमण्डलुन दण्ड: सार्ववर्णकभक्षाटनपरत्वं जातरूपधरत्वं विधिः ।" -ना. प. उ. ५। शाव्यायनी. ११ । ५. दण्डधार आ.। ६. ऐशानी भ. २।। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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