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________________ ४२० षड्दर्शनसमुच्चये [ का. ६४.६४९२६४९२. व्याख्या-उत्क्षेपः-ऊवं क्षेपणं मुशलावेरूध्वं नयनमुत्क्षेपणं कर्मेत्यर्थः । तद्विपरोतोऽवक्षेपोऽधोनयनमित्यर्थः। ऋजुनोऽङ्गल्याविद्रव्यस्य कुटिलत्वकारणं कर्माकुञ्चनम् । स्वार्थे कप्रत्यय आकुश्चनकम्। येन वक्रोऽवयव्यूजः संपद्यते तत्कर्म प्रसारणम् । यदनियतदिग्देशैः संयोगविभागकारणं तदगमनम । अनियतग्रहणेन भ्रमणपतनस्यन्दनरेचनादीनामपि गमन एवान्तर्भावो विभावनीयः । पञ्चविधमेव कर्म क्रियारूपमेतदनन्तरोक्तम् । १४९३. अथ सामान्यमुच्यते। तुशब्दस्य व्यस्तसंबन्धात्सामान्ये तु द्वे परापरे-परमपरं च द्विविधं सामान्यमित्यर्थः ॥६४॥ १४९४. अथ परापरे व्याख्याति तत्र परं सत्ताख्यं द्रव्यत्वाद्यपरमथ विशेषस्तु । निश्चयती नित्यद्रव्यवृत्तिरन्त्यो विनिर्दिष्टः ॥६५।। ६४९५. व्याख्या-तत्र-तयोः परापरयोर्मध्ये परं-सामान्यं सत्ताख्यम् । इदं सदिदं सदित्यनुगताकारज्ञानकारणं सत्तासामान्यमित्यर्थः। तच्च त्रिषु द्रव्यगुणकर्मसु पदार्थेषु सत्सदित्यनुवृत्तिप्रत्ययस्यैव कारणत्वात्सामान्यमेवोच्यते, न तु विशेषः। अथापरमुच्यते 'द्रव्यत्वादि' द्रव्यत्वं ४९२. उत्क्षेप-ऊपरकी ओर फेंकना । मूसल आदिको ऊपरकी ओर ले जानेवाली क्रिया उत्क्षेपण है । उत्क्षेपणसे उल्टी अर्थात् नीचे पटकनेवाली क्रिया अवक्षेप-अवक्षेपण है । सोधी अंगुली आदिको टेढ़ा करनेवाली क्रिया आकुंचन-सिकोड़ना है। स्वार्थमें 'क' प्रत्यय होनेसे आकुंचनको ही आकुंचनक कहते हैं। जिस क्रियासे टेढ़ी चीज-सिकुड़ी हुई वस्तु फिर सीधी हो जाय उसे प्रसारण-फैलाना कहते हैं । अनियत-जिस किसी भी दिशामें टेढ़े-मेढ़े तिरछे आदि रूपसे होनेवाली सभी क्रियाएँ गमन हैं। उत्क्षेपणमें ऊपरके आकाश प्रदेशों से संयोग तथा नीचेके आकाश प्रदेशोंसे विभाग होता है । अवक्षेपणमें ऊपरी प्रदेशोंसे विभाग तथा नीचेके प्रदेशोंसे संयोग होता है । आकुंचनमें वस्तुके मूल प्रारम्भके अपने ही प्रदेशोंसे संयोग होकर अन्य आकाश प्रदेशोंसे विभाग होता है। प्रसारणमें मूल प्रदेशोंसे विभाग होकर अन्य अग्रभागके आकाश प्रदेशोंसे संयोग होता है। गमनमें अनियत दिशावादी सभी तरफके आकाश प्रदेशोंसे संयोग विभाग होते हैं। गमनके लक्षणमें 'अनियत' शब्द होनेसे भ्रमण, पतन, स्यन्दन, चूना, रेचन-झरना आदि विविध क्रियाओंका गमनमें ही अन्तर्भाव हो जाता है। यह पांच प्रकारका कर्म क्रिया रूप है। ६४९३. 'तु' शब्दका सम्बन्ध 'सामान्य' शब्दसे करना चाहिए । अर्थात्-सामान्य तो पर और अपरके भेदसे दो प्रकारका है ॥६४॥ : ४९४. अब पर और अपर सामान्यका निरूपण करते हैं , उनमें सत्ता तो परसामान्य है तथा द्रव्यत्व गुणत्व आदि अपर परमार्थ दृष्टिसे नित्य द्रव्यमें रहनेवाले अन्त्य विशेष हैं ॥६५॥ ४९५. पर और अपर सामान्यमें सत्ता परसामान्यरूप है। सत्ता 'यह सत् है यह सत् है' इस सद्रूपसे अनुगतज्ञानको उत्पत्तिमें कारण होता है। द्रव्य, गुण और कर्म इन तीन पदार्थों में इस सदाकार अनगतका ही कारण होनेसे सत्ता केवल सामान्यरूप ही है न कि विशेषरूप भी। द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्व आदि अपरसामान्य हैं । द्रव्यत्व, पृथिवी आदि नौ ही द्रव्योंमें 'सत् सद १. प्रश. मा. पृ. १४८ । २. -णस्पन्दन भ. २ । ३. "तत्र सत्तासामान्ये परमनुवृत्तिप्रत्ययकारणमेव ।" -प्रश. मा. पृ. १६५ । ४. वृत्तिप्रयोगस्यैव म. १, २, प. १,२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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