________________
- का० ६५. ९ ४९६ ]
वैशेषिकमतम् ।
४२१
गुणत्वं कर्मत्वं चापरं सामान्यम्, तत्र नवसु द्रव्येषु द्रव्यं द्रव्यमिति बुद्धिहेतुर्दव्यत्वम् । एवं गुणेषु गुणत्वबुद्धिविधायि गुणत्वं, कर्मसु च कर्मत्वबुद्धिकारणं कर्मत्वम् । तच्च द्रव्यत्वादिकं स्वाश्रयेषु द्रव्यादिष्वनुवृत्तिप्रत्यय हेतुत्वात्सामान्यमप्युच्यते, स्वाश्रयस्य च विजातीयेभ्यो गुणादिभ्यो व्यावृत्तिप्रत्ययहेतुतया विशेषोऽत्युच्यते । ततोऽपरं सामान्यमुभयरूपत्वात्सामान्यविशेषसंज्ञां लभते । अपेक्षाभेदादेकस्यापि सामान्यविशेषभावो न विरुध्यते । एवं पृथिवीत्व स्पर्शत्वोत्क्षेपणत्यगोत्वघटत्वादीनामप्यनुवृत्तिव्यावृत्ति हेतुत्वात्सामान्यविशेषभावः सिद्ध इति । अत्र सत्तायोगात्सत्त्वं यदिष्यते तद्द्रव्यगुणकर्मस्वेव न पुनराकाशादिषु, आकाशकालदिक्षु हि वस्तुस्वरूपमेवास्तित्वं स्वीक्रियते व्यक्त्यैक्यादिकारणैः । तथा चोदयनः
"व्यक्तेरभेदस्तुल्यत्वं सङ्करोऽथानवस्थिति: ।
रूपहानिरसंबन्धो जातिबाधकसंग्रहः || १||” [प्रश. किरणा. पृ. ३३]
$ ४९६. अस्य व्याख्या –— व्यक्तेरभेद ऍकमनेकवत सामान्यम् । आकाशे व्यक्तेरभेदान्न जातित्वम् । पृथिवीत्वे जातो यदि भूमित्वमुच्यते, तदा तुल्यत्वम् । परमाणुषु जातित्वेऽङ्गीकृते पार्थिवाप्यतैजसवायवीयत्वयोगात्सङ्करः । सामान्ये यदि सामान्यमङ्गीक्रियते, तदा मूलक्षि (क्ष) ति
'द्रव्य द्रव्य' इस अनुगत बुद्धिमें कारण होता है । गुणत्व से स्पर्श आदि गुणों में 'गुण गुण' यह अनुगताकार बुद्धि होती है । कर्मत्व उत्क्षेपणादि कर्मों में 'कर्म कर्म' इस अनुगत बुद्धिमें कारण होता है । द्रव्यत्व आदि अपने आधारभूत द्रव्य आदिमें अनुगत प्रत्यय करानेके कारण सामान्य रूप होकर भी उनकी विजातीय गुण आदिसे व्यावृत्ति भी कराते हैं अतः ये विशेष भी कहलाते हैं । अपरसामान्य सामान्य और विशेष दोनों रूप होनेके कारण 'सामान्यविशेष' भी कहलाता है । भिन्न-भिन्न अपेक्षाओंसे एक ही सामान्यमें सामान्यरूपता तथा विशेषरूपता दोनों ही धर्म निर्विरोध सिद्ध हो जाते हैं । इसी तरह पृथ्वीत्व स्पर्शत्व उत्क्षेपणत्व गोत्व घटत्व आदि भी स्वव्यक्तियों में अनुगतप्रत्यय तथा विजातीय व्यक्तियोंसे व्यावृत्त प्रत्यय करानेके कारण अपरसामान्य या सामान्यविशेष हैं । द्रव्य गुण और कर्म तीन ही पदार्थ सत्ताके समवायसे सत् माने जाते हैं । आकाश आदि में जाति नहीं मानते, आकाश काल और दिशामें स्वरूपात्मक अस्तित्व रहता है क्योंकि आकाश आदि एक-एक ही व्यक्तियां हैं। उदयनाचार्यने निम्नलिखित कारण जातिके बाधक बताये हैं- " व्यक्तिका एक अकेला होना, तुल्यत्व, संकर, अनवस्था, रूपहानि और असम्बन्ध ये जाति बाधक कारण हैं ।"
९ ४९६. व्याख्या - व्यक्तिका अकेलापन जातिमें बाधक है; क्योंकि सामान्य तो अनेक व्यक्तियों में रहता है । आकाश काल आदि एक-एक हैं अतः इनमें आकाशत्व कालत्व आदि जातियाँ नहीं रहतीं । पृथिवी में पृथिवीत्व और भूमित्व नामको समानार्थक दो जातियाँ नहीं रहतीं; क्योंकि दोनोंकी व्यक्तियाँ तुल्य हैं तथा वे दोनों समानार्थक हैं । अतः पृथिवीत्वसे तुल्यता होने के कारण भूमित्व अतिरिक्त जाति नहीं है । एक दूसरेके अत्यन्ताभाव में पायी जानेवाली जातियोंका एक स्थानपर समावेश होना संकर है जैसे घट में परमाणुत्वका अत्यन्ताभाव है, इसमें पृथिवीत्व जात पायी जाती है । जलपरमाणुओं में पृथिवीत्वका अत्यन्ताभाव है इसमें परमाणुत्व पाया जाता
१. "अपरं द्रव्यत्वगुणत्व कर्मत्वादि अनुवृत्तिव्यावृत्तिहेतुत्वात्सामान्यं विशेषश्च भवति । प्रश. मा. पृ. १६५ । २. वृत्तिहेतु- भ. १, २, १. १, २, क. । ३. त्वमङ्गीक्रियते म. २ । ४. -कवृत्ति साभ. २ । ५. 'तुल्यत्वम् तुल्यत्वात् न जातित्वम् इत्यधिकम् क्वचित् आ. टि. । ६. -ङ्गीक्रियमाणे
वा-म. २ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org