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४१८ षड्दर्शनसमुच्चये
[का०६३.६४८४पूर्ववद्ययावस्थितं स्थापयतीति स्थितिस्थापक उच्यते। दृश्यते तालपत्रादेः प्रभूततरकालसंवेष्टितस्य प्रसार्यमुक्तस्य पुनस्तथैवावस्थानं संस्कारवशात् । एवं धनुःशाखाशृङ्गवन्तादिषु भग्नापतितेषु च वस्त्रादिषु तस्य कार्य परिस्फुटमुपलभ्यते।
$ ४८४. प्रज्वलनात्मको द्वेषः यस्मिन् सति प्रज्वलितमिवात्मानं मन्यते । द्रोहः क्रोधो मन्युरक्षमामर्ष इति द्वेषभेदाः।
४८५. स्नेहोऽपा विशेषगुणः संग्रहमृद्वादिहेतुः । अस्यापि गुरुत्ववत् नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः।
६४८६. गुरुत्वं जलभूम्योः पतनकर्मकारणमप्रत्यक्षम् । तस्याबादिपरमाणुरूपादिवत् नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः।
६४८७. देवत्वं स्यन्दनकर्मकारणं त्रिद्रव्यवृत्तिः। तद्वधा-सहजं नैमित्तिकं च । सहजमपां द्रवत्वम् । नैमित्तिकं तु पृथिवीतेजसोरग्निसंयोगजं यथा सपिषः सुवर्णत्रप्वादेश्चाग्निसंयोगाद्वत्वमुत्पद्यते। वस्तुका स्थापन करानेवाला संस्कार स्थितिस्थापक है। जैसे बहुत दिनों तक लपेटकर रखे हुए ताड़पत्र आदिको फैलाकर छोड़नेपर संस्कारके कारण वे फिर जैसे के तैसे लिपट जाते हैं। धनुषको खींचकर छोड़नेपर वह जैसाका तैसा इसी संस्कारके कारण हो जाता है। वक्षकी डालीको नीचेसे पकड़कर हिलाकर छोड़ दीजिए, वह इसी संस्कारके कारण जहांकी तहाँ स्थित हो जायेगी। सींग या दांतको हिलाकर छोड़ दीजिए वह जहांका तहां जम जायेगा। लिपटे हुए कपड़ेको उकेलकर छोड़ दीजिए इस संस्कारमें वैसा ही फिर लिपट जायेगा। इन उदाहरणोंमें स्थितिस्थापक संस्कारका कार्य साफ-साफ दिखाई देता है।
४८४. द्वेष प्रज्वलनात्मक होता है। द्वेषके कारण आत्मा क्रोधसे तमतमा उठती हैभीतर ही भीतर जलने लगती है। द्रोह, क्रोध, अहंकार, अक्षमा, असहिष्णुता आदि द्वेषके ही रूपान्तर हैं।
६४८५. स्नेह-चिकनाई, जलका विशेष गुण है। यह आटे आदिकी पिण्डी बनानेमें तथा पदार्थोंको मांजनेमें उन्हें स्वच्छ करने में कारण होता है। यह गुरुत्वकी तरह नित्य भी है तथा अनित्य भी है। परमाणुओंके स्नेह नित्य हैं तथा कार्यद्रव्योंका अनित्य ।
४८६. गुरुत्व-भारीपन जल और पृथ्वीको नीचे गिरनेमें कारण होता है। यह अतीन्द्रिय होता है। जिस तरह जल आदि परमाणुओंके रूपादि नित्य तथा कार्यद्रव्य अनित्य हैं उसी तरह गुरुत्व भी परमाणुगत नित्य है तथा कार्य द्रव्यगत अनित्य है।
६४८७. स्यन्दन–चूने या बहने में कारणभूत गुण द्रवत्व है। यह पृथिवी, जल और अग्नि तीन द्रव्योंमें रहता है । द्रवत्व दो प्रकारका है-एक तो सहज-स्वाभाविक और दूसरा नैमित्तिक । जलमें स्वाभाविक द्रवत्व है । पृथिवी और तेजमें अग्निके संयोगसे द्रवत्व उत्पन्न होता है। घी, सोना, लाख, सीसा आदि अग्निके संयोगसे पिघलकर बहने लगते हैं। इनमें नैमित्तिक द्रवत्व है।
१. भुग्ना (भुक्ता) प-आ.। २. "प्रज्वलनात्मको द्वेषः।"-प्रश. मा. पृ. १३२। ३. "स्नेहोऽपां विशेषगुणः ।" -प्रश. मा. पृ. १३५। ४. "गुरुत्वं जलभम्योः पतनकर्मकारणम् ।"
-प्रश. मा. पृ. १३३। ५. "द्रवत्वं स्यन्दनकर्मकारणम।" -प्रश. मा, पृ. १३४ । ६. स्पन्दन-म.२।
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