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-का. ६३. ६ ४८३] वैशेषिकमतम् ।
४१७ परोक्षोऽदृष्टाख्यो गुणः। तंत्र धर्मः पुरुषगुणः कर्तुः प्रियहितमोक्षहेतुरतीन्द्रियोऽन्त्यसुखसंविज्ञानविरोधी, अन्त्यस्यैव सुखस्य सम्यग्विज्ञानेन धर्मो नाश्यते, अन्त्यसुखकालं यावत् धर्मस्थावस्थानात् । सच पुरुषान्तःकरणसंयोगविशुद्धाभिसंधिजो वर्णाश्रमिणां प्रतिनियतसाधननिमित्तः, सायनानि तु श्रुतिस्मृतिविहितानि सामान्यतोऽहिंसादोनि, विशेषतस्तु ब्राह्मणादीनां पृथक्पृथग्यजनाध्ययनादीनि ज्ञातव्यानि।
६४८१. अधर्मोऽप्यात्मगुणः कर्तृरहितः प्रत्यवायहेतुरतीन्द्रियोऽन्त्यदुःखसंविज्ञानविरोधी।
६४८२. प्रयत्न उत्साहः, स च सुप्तावस्थायां प्राणापानप्रेरकः प्रबोधकालेऽन्तःकरणस्येन्द्रियान्तरप्राप्तिहेतुहिताहितप्राप्तिपरिहारोद्यमः शरीरविधारकश्च ।
$४८३. संस्कारो द्वेधा, भावना स्थितिस्थापकश्च । भावनाख्य आत्मगुणो ज्ञानजो ज्ञानहेतुश्च दृष्टानुभूतश्रुतेष्वर्थेषु स्मृतिप्रत्यभिज्ञानकार्योन्नीयमानसद्भावः। स्थितिस्थापकस्तु मूर्तिमद्रव्यगुणः स च घनावयवसंनिवेशविशिष्टं स्वमाश्रयं कालान्तरस्थायिनमन्यथाव्यवस्थितमपि प्रयन्नतः सुख-दुःखादि फलसे ही जिसका विनाश होना है आत्माका गुण अदृष्ट कहलाता है। अदृष्ट दो प्रकारका है-एक धर्म और दूसरा अधर्म। धर्म पुरुषका गुण है, कर्ताके प्रिय हित तथा मोक्षमें कारण होता है, अतीन्द्रिय है, अन्तिम सुखका यथार्थ विज्ञान होनेसे इसका नाश होता है, जबतक तत्त्वज्ञानकी पूर्णता नहीं होती तबतक धर्मका कार्य सुख बराबर चालू रहता है, तत्त्वज्ञान होनेके बाद भी प्रारब्धकर्मोके फलरूप अन्तिमसुख तक बराबर धर्म ठहरता है। अन्तिमसुखको उत्पन्न करनेके बाद धर्मका तत्त्वज्ञानसे नाश हो जाता है। यह पुरुष और अन्तःकरणके संयोगसे विशुद्ध विचारोंके द्वारा वर्णाश्रमधर्मका श्रुतिस्मृति विहित मार्गसे पालन करनेपर उत्पन्न होता है। इसके साधन सामान्यरूपसे तो श्रुति और स्मृतियोंमें बताये गये अहिंसा आदि हैं और विशेषरूपसे ब्राह्मण-क्षत्रिय आदिके पूजन-अध्ययन, शस्त्रधारण आदि भिन्न-भिन्न आचार हैं।
६४८१. अधर्म भी आत्माका गुण है, कर्ताको अहित रूप है तथा विघ्न एवं आपत्तियोंमें कारण होता है, अतीन्द्रिय है और अन्तिम दुःखके सम्यग्ज्ञानसे नष्ट होनेवाला है। तत्त्वज्ञानके बाद प्रारब्धकर्मके फलस्वरूप अन्तिम दुःखको उत्पन्न करके तत्त्वज्ञानके द्वारा अधर्मका नाश हो जाता है।
६४८२. प्रयत्न-उत्साह कार्य करनेका उद्यम । यह सोते समय श्वासोच्छ्वास लिवाता है, जागते समय अन्तःकरणको भिन्न-भिन्न इन्द्रियोंसे संयोग कराता है, हितकी प्राप्ति तथा अहितके परिहारके लिए उद्यम कराता है तथा शरीरको धारण करने में सहायक होता है।
६४८३. संस्कार-संस्कार दो प्रकारका है-१ भावना, २ स्थितिस्थापक । अनुभव आदि ज्ञानोंसे उत्पन्न होनेवाला तथा स्मृति प्रत्यभिज्ञान आदि ज्ञानोंको उत्पन्न करनेवाला भावना नामक संस्कार है। देखे गये, सुने गये तथा जाने गये पदार्थों के स्मरण प्रत्यभिज्ञान आदिसे इस संस्कारका अस्तित्व सिद्ध होता है। इस संस्कारके बिना स्मरण आदि नहीं हो सकते। स्थितिस्थापक संस्कार मूर्तिमान् पदार्थों का गुण है। जिसके कारण घने अवयववाली स्थायी वस्तुको दूसरी तरह रखनेपर भी फिर जैसीकी तैसी हो जाती है वह जैसी वस्तु स्थित थी उसी तरह
१. गुणः धर्मः भ.। २. "धर्मः पुरुषगुणः..." -प्रश. मा. पृ. १३८ । ३. "अधर्मोऽप्यात्मगुणः..."-प्रश. मा. पृ. १४२ । ४. "प्रयत्नः संरम्भ उत्साह इति पर्यायाः। स द्विविधो-जीवनपूर्वकः इच्छाद्वेषपूर्वकश्च ।" -प्रश. भा. पृ. १३२। ५. न प्रकरः भ.२।६. "संस्कारस्त्रिविधो वेगो भावना स्थितिस्थापकश्च ।" -प्रश. मा. पृ. १३६ ।
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