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________________ - का० ६३. ९ ४७३ ] वैशेषिकमतम् । ४१३ त्पादात् । तथा कार्यरूपविनाशस्याश्रयविनाश एव हेतुः । पूर्वं हि कार्यद्रव्यस्य नाशः, तदनु च रूपस्य, आशुभावाच्च क्रमस्याग्रहणमिति । 'गन्धो घ्राणग्राह्यः पृथिवीवृत्तिः । स्पर्शादिश्च गुणत्वे सति त्वगिन्द्रियग्राह्यादिकं लक्षणमितरव्यवच्छेदकम् । 3 ६४७२. शब्दः श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यो गगनवृत्तिः क्षणिकश्च । श्रोत्रेन्द्रियं चाकाशात्मकम् । अथाकाशे निरवयव इदमात्मीयं श्रोत्रमिदं च परकीयमिति विभागः कथमिति चेत् । उच्यतेयदीयधर्माधर्माभिसंस्कृत कर्णशष्कुल्यवरुद्धं यन्नभस्तत्तस्य श्रोत्रमिति विभागः, अत एव नासिकादिरन्ध्रान्तरेण न शब्दोपलम्भः संजायते । तत्कर्णशष्कुली विघातादृबाधिर्याविकं च व्यवस्थाप्यत इति । $ ४७३. संख्या तु "एका दिव्यवहारहेतुरेकत्वाविलक्षणा । सा पुनरेकद्रव्या चानेकद्रव्या च तत्रैकसंख्यैकद्रव्या, 'अनेकद्रव्या तु द्वित्वादिसंख्या । तत्रैकद्रव्यायाः सलिलादिपरमाण्वादिगतस्थूल दृष्टिमें नहीं झलकता । यही कारण है कि हम लोग कार्यद्रव्यके नाशको तथा उसके गुणोंके नाशको एक ही क्षण में मान लेते हैं । क्षण होते क्या देर लगती है ? वह बहुत ही जल्दी होता है इसीलिए हम द्रव्यनाश और गुणनाशके क्रमको नहीं जान पाते । नाकसे सूंघा जानेवाला गुण गन्ध है | गन्ध मात्र पृथिवी में ही रहती है । स्पर्श आदिके इतर व्यावर्तक असाधारण लक्षण इस प्रकार हैं । स्पर्शनेन्द्रिय से छुआ जाकर जो गुण हो वह स्पर्श, रसनेन्द्रियसे चखा जाकर जो गुण हो वह रस, आंखोंसे देखा जाकर जो गुण हो वह रूप और नाकसे सूंघा जाकर जो गुण हो वह गन्ध । यद्यपि रूपत्व, रसत्व, गन्धत्व और स्पर्शत्व जातियां भी चक्षु आदि इन्द्रियोंसे देखो, चाटी, सुधी और छुई जाती हैं तो भी वे गुण नहीं हैं अतः उनमें पूरा लक्षण अतिव्याप्त नहीं हो सकता । जिस इन्द्रसे जो पदार्थ जाना जाता है उसी इन्द्रियसे उसकी जाति और उसके अभाव के परिज्ञान होनेका नियम है। अतः 'गुण' विशेषणसे रूपत्व आदि सामान्यों में लक्षण अतिव्याप्त नहीं हो सकता । $ ४७२. कानसे सुनाई देनेवाला गुण शब्द है । यह आकाशमें रहता है तथा क्षणिक है । कान इन्द्रिय आकाश रूप ही है । शंका- आकाश तो निरवयव है, अतः यह हमारा श्रोत्र है और यह पराया यह विभाग कैसे हो सकेगा ? समाधान - स्व- पर विभाग में कोई कठिनाई नहीं है । जिसके पुण्य-पापसे संस्कृत कर्णंशष्कुलि - - कानका तारा - में आकाशका जो भाग आता वह उसीका श्रोत्र कहा जायेगा । इसीलिए नाक के छेद में समाये हुए आकाशसे शब्द नहीं सुनाई देता । जिसके कानका तारा फट जाता है या उसमें छेद हो जाता है वही व्यक्ति बहरा या कम सुननेवाला हो जाता है । ४७३. एक, दो, तीन आदि व्यवहार करनेवाला गुण एकत्व, द्वित्व आदि संख्या है । यह एक द्रव्य में भी रहती है और अनेक द्रव्योंमें भी । एकत्वसंख्या एकद्रव्यमें रहता है तथा द्वित्वत्रित्व आदि संख्याएँ अनेक द्रव्योंमें। एक द्रव्यमें रहनेवाली एकत्व संख्या जल आदिके परमाणुओंमें तथा कार्यद्रव्य में रहनेवाले रूपादि गुणोंकी तरह नित्य भी है और अनित्य भी । परमाणुओं में नित्य तथा कार्यद्रव्य में अनित्य । कार्यद्रव्यको एकत्वसंख्या कारणकी एकत्वसंख्यासे उत्पन्न होती है । अनेक द्रव्यमें रहनेवाली द्वित्व आदि अपेक्षाबुद्धिसे उत्पन्न होते हैं तथा अपेक्षाबुद्धि के नाशसे ही नष्ट हो जाते हैं, कहीं आधारभूत द्रव्यके नाशसे भी इनका नाश होता है। दो या तीन १. " गन्धो घ्राणग्राह्यः । पृथिवोवृत्तिः ।" - प्रश. मा. पृ. ४५ । २. " शब्दोऽम्बरगुणः श्रोत्रग्राह्यः क्षणिकः कार्यकारणोभयविरोधी संयोगविभागशब्दजः प्रदेशवृत्तिः ।" - प्रश. मा. पृ. १४४॥ ३. भो मूत्तस्याश्रोत्र - म. २ । ४. प्यते स - म. २ । ५. एकादिकाव्य-भ. २ । “एकादिव्यवहारहेतु संख्या...." - प्रश. भा. पृ. ४८ । ६. अनेकद्रव्यादिषु तु म. २ । अनेकसंख्या तु आ., क. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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