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४१२ षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० ६२. ६४७०द्रव्यमुपलब्धियोग्यमिष्यते। ततश्चापरापरारब्धत्वेऽपरापरद्रव्योत्पतिज्ञेया। गुणः पुनः पञ्चविंशतिधा स्पष्टम् ॥६॥ 5 ४७०. 'गुणस्य पञ्चविंशतिविधत्वमेवाह
स्पर्शरसरूपगन्धाः शब्दः संख्या विभागसंयोगौ । परिमाणं च पृथक्त्वं तथा परत्वापरत्वे च ॥६२॥ बुद्धिः सुखदुःखेच्छाधर्माधर्मप्रयत्नसंस्काराः।
द्वेषः स्नेहगुरुत्वे द्रव्यत्ववेगौ गुणा एते ॥६३॥ ॥युग्मम्॥ $ ४७१. व्याख्या-स्पर्शस्त्वगिन्द्रियग्राह्यः पृथिव्युदकज्वलनपवनवृत्तिः। रसो-रसनेन्द्रियग्राह्यः पृथिव्युदकवृत्तिः। चक्षुर्ग्राह्यं रूपं पृथिव्युदकज्वलनवृत्ति, तच्च रूपं जलपरमाणुषु तेजःपरमाणुषु च नित्यं, पार्थिवपरमाणुरूपस्य त्वग्निसंयोगो विनाशकः । सर्वकार्येषु च कारणरूपपूर्वकरूपमुत्पद्यते, उत्पन्नेषु हि द्वयणुकादिकार्येषु पश्चात्तत्र रूपोत्पत्तिः, निराश्रयस्य कार्यरूपस्यानु. माननेपर ही त्र्यणुकमें महापरिमाणकी उत्पत्ति हो सकती है। यही कारण है कि तोन द्वयणुकसे त्र्यणुककी उत्पत्ति बताया है न कि दो द्वयणुकसे। दो द्वयणुकमें बहुत्व संख्या न होकर द्वित्व संख्या ही रहती है । गुण पच्चीस प्रकारका है यह स्पष्ट है।
६४७०. अब पच्चीस गुणोंका निरूपण करते हैं
स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, शब्द, संख्या, विभाग, संयोग, परिमाण, पृथक्त्व, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, धर्म, अधर्म, प्रयत्न, संस्कार, द्वेष, स्नेह, गुरुत्व, द्रवस्व और वेग, ये पच्चीस गुण हैं ॥६२-६३॥
.5 ४७१. स्पर्शन इन्द्रियका विषयभूत गुण स्पर्श है। यह स्पर्शनेन्द्रियसे छुआ जाता है और पृथिवी, जल, अग्नि और वायुमें रहता है । जीभके द्वारा चखा जानेवाला गुण रस है । यह पृथिवी और जलमें रहता है। आंखसे दिखाई देनेवाला गुण रूप है। यह पृथिवी जल और अग्निमें पाया जाता है । जल तथा अग्निके परमाणुओंका रूप नित्य है परन्तु पृथिवीके परमाणुओंडा रूप अग्तिके संयोगसे नष्ट हो जाता है। पृथिवीमें अग्निके संयोगसे पूर्वरूप नष्ट होकर नया पाकजरूप उत्पन्न होता है। कारणके रूपसे ही सभी कार्यों में रूपकी उत्पत्ति होती है। जब पहले द्वयणुकादिकार्य उत्पन्न हो जाते हैं तब उनमें रूपादि गुणोंकी उत्पत्ति होती है, क्योंकि रूपादि गुण हैं, अतः वे निराधार उत्पन्न नहीं हो सकते, उनका आधारभूत द्रव्य होना ही चाहिए। इस तरह जब गुण निराधार उत्पन्न नहीं होते तब उनका नाश भी आधारके नाशसे ही होगा। कार्यद्रव्यरूपी आधारके नष्ट होते ही द्वितीयक्षणमें रूपादि गुणोंका नाश होता है। क्षण इतना सूक्ष्म है कि वह हम लोगोंकी
१. परद्र-म. २। २. गुणपञ्च-म. २। ३. "रूपरसगन्धस्पर्शाः संख्याः परिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविभागौ परत्वापरत्वे बुद्धयः सुखदुःखेच्छाद्वेषो प्रयत्नाश्च गुणाः।" वैशे. सू. १।१।६। "इति कण्ठोक्ताः सप्तदश । चशब्दसमुच्चिताश्च गुरुत्वद्र वत्वस्नेहसंस्कारादृष्टशब्दाः सप्तैवेत्वेवं चतुर्विंशतिर्गुणाः।"
-प्रश. मा. पृ.३ ४. युगलम् । म.२। ५. "स्पर्शस्त्वगिन्द्रियग्राह्यः। क्षित्युदकज्वलनपवनवृत्तिः।" -प्रश. भ. पृ. ४५। ६. "रसो रसनग्राह्यः। पृथिव्युदकवृत्तिः ।" -प्रश. मा. पृ. ४५। ७. 'तत्र रूपं चक्षुह्यम् । पृथिव्युदकज्वलनवृत्ति द्रव्याधुपलम्भकं नयनसहकारि शुक्लाधनेकप्रकारं सलिलादिपरमाणुषु नित्यं पार्थिवपरमाणुष्वग्निसंयोगविरोधि सर्वकार्यद्रव्येषु कारणगुणपूर्वकमाश्रयविनाशादेव विनश्यतीति ।" -प्रश. मा. पृ. ४४।
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