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- का० .६१ § ४६९ ]
वैशेषिकमतम् ।
"लक्षणमितरेभ्योऽवादिभ्यो भेवव्यवहारहेतुर्द्रष्टव्यम् । अभेववतां त्वाकाशकालदिग्द्रव्याणामनादितच्छन्दवाच्यतां द्रष्टव्या ।
$ ४६९. इदं च नवविधमपि द्रव्यं सामान्यतो द्वेषा, अद्रव्यं द्रव्यं अनेकद्रव्यं च द्रव्यम्तत्राद्रव्यमाकाशकाल दिगात्ममनःपरमाणवः कारणद्रव्यानारब्धत्वात् । अनेकद्रव्यं तु द्वयणुकादिस्कन्धाः । तत्र च द्वाभ्यां परमाणुभ्यां कार्यद्रव्ये आरब्धेऽणुरिति व्यपदेशः, परमाणुद्वयारब्धस्य "द्वयणुकस्याणुपरिमाणत्वात् । त्रिचतुरैः परमाणुभिरारब्धस्थापि कार्यद्रव्यस्याणुपरिमाणव स्यात्, परं द्व्यणुकव्यपदेशो न स्यात् । त्रिभिर्द्धघणुकैश्चतुभिर्वारब्धे त्र्यणुकमिति व्यपदेशः, न तु द्वाभ्यां द्वणुकाभ्यामारब्धे द्वाभ्यामारब्धस्य ह्यपलब्धिनिमित्तं महत्त्वं न स्यात् । त्र्यणुकं च
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तथा अग्निमें अग्नित्वका समवाय उनकी इतर द्रव्योंसे व्यावृत्ति कराके 'पृथिवी' आदि अनुगत व्यवहारमें कारण होता है । आकाश काल और दिशा ये एक-एक ही द्रव्य हैं । इसलिए इनमें आकाशत्व आदि जातियां नहीं पायो जातीं । अतः इनकी 'आकाश, काल और दिशा' ये संज्ञाएँ तथा व्यवहार अनादि कालीन हैं ।
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$ ४६९. ये नवों द्रव्य सामान्यसे दो प्रकारके हैं - एक अद्रव्य द्रव्य और दूसरे अनेक द्रव्य द्रव्य, जिनको उत्पन्न करनेवाला कोई अन्य द्रव्य रूप समवायिकारण न हो वे अद्रव्य द्रव्य हैं अर्थात् नित्य द्रव्य । जैसे आकाश काल दिशा आत्मा मन और पृथिवी आदिके परमाणु । इनको उत्पन्न करनेवाला कोई कारण द्रव्य नहीं है जिनकी उत्पत्तिमें अनेक द्रव्य समवायिकारण होते हैं वे अनेक द्रव्य द्रव्य अर्थात् अनित्य द्रव्य कहलाते हैं जैसे परमाणुओंसे बननेवाले द्वयणुक आदि । मतलब यह कि द्रव्य या तो अद्रव्य नित्य होंगे या अनेक द्रव्य अनित्य । कोई भी द्रव्य 'एकद्रव्य ' - जिसकी उत्पत्ति में एक ही द्रव्य समवायिकारण हो जैसे ज्ञानादि गुण नहीं हो सकता। दो परमाणुओंसे उत्पन्न होनेवाले कार्य द्रव्यको 'अणु' कहते हैं; क्योंकि दो परमाणुओंसे उत्पन्न द्रव्य में अणुपरिमाण ही रहता है । इसी तरह तीन चार परमाणुओंसे उत्पन्न होनेवाले कार्य द्रव्य भी 'अणु' ही कहे जाते हैं उन्हें द्वणुक नहीं कहते। तीन या चार द्व्यणुकसे उत्पन्न होनेवाला कार्यं द्रव्य त्र्यणुक कहलाता है । दो द्व्यणुकोंसे उत्पन्न होनेवाले कार्यद्रव्यको व्यणुक नहीं कह सकते; क्योंकि दो
कोंसे उन कार्यमें इन्द्रियोंसे ग्रहण करने लायक महत्त्व परिमाण नहीं होता । त्र्यणुक द्रव्य ही इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण करने लायक होता है। इस तरह आगे-आगे महान् परिमाणवाले कार्य द्रव्यों की उत्पत्ति होती जाती है । विशेष कारण द्रव्यका परिमाणको कार्यमें स्वसजातीय उत्कृष्ट परिमाण उत्पन्न करनेका नियम है । यदि परमाणुके परिमाणको द्वयणुकके परिमाणमें कारण माना जायेगा तो उसमें अणु परिमाणके सजातीय उत्कृष्ट अणुतर परिमाणकी उत्पत्ति होगी । अतः परमाणु के अणुपरिमाणको कार्यके परिमाणमें कारण नहीं मानकर परमाणुकी संख्याको कारण मानते हैं । जिससे द्वणुक में अणुपरिमाणकी ही उत्पत्ति होती है न कि अणुतर परिमाणकी । इसी तरह यदि द्वणुक अणुपरिमाणको त्र्यणुकके परिमाण में कारण मानेंगे, तो इसमें भी अणुजातीय उत्कृष्ट - अणुतर परिमाणकी हो उत्पत्ति होगी । अतः द्वयणुकों में रहनेवाली बहुत्व संख्याको कारण
१. "लक्षणं च भेदार्थ व्यवहारार्थं चेति । तथाहि पृथिव्यादीनि इतरस्माद् भिद्यन्ते द्रव्याणीति वा व्यपहृर्तव्यानि द्रव्यत्वयोगात् ।" -प्रश व्यो. पू. १५० । “पृथिव्यादीनां नवानामपि द्रव्यत्वयोगः ।” - प्रश. भा. पृ. २० । “ एतेन द्रव्यादिपदार्थस्य इतरेभ्यो भेदलक्षणमुक्तम् ।" - प्रश. कन्दली पृ. २० । २. " आकाशकालदिशा मेकैकत्वादपरजात्यभावे पारिभाषिक्यस्तिस्रः संज्ञा भवन्ति आकाशं कालो दिगिति ।" - प्रश. मा. पृ. ५८ । ३. कस्याणु परमाणुत्वात् म. ९ २ प १, २१कस्यापरमाणुत्वात् क. ४. कार्यस्याणुप - म १ प १, २ । कार्यस्याणुपरमाणुतैव भ. २ ।
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