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________________ ४१० षड्दर्शनसमुच्चये [का० ६१. १४६७संनिधानाज्ज्ञानानामुत्पत्तिरसंनिधानाच्चानुत्पत्तिरिति । तस्य च मनसो मृतशरीरान्निर्गतस्य मृतशरीरप्रत्यासन्नमदृष्टवादुपजातक्रियैरणुभिचणुकादिक्रमेणारब्धमतिसूक्ष्ममनुपलब्धियोग्यं शरीरं संक्रम्यैव स्वर्गादौ गतस्य स्वर्गाधुपभोग्यशरीरेण संबन्धो भवति । केवलस्य त्वेतावदूरं गतिर्न स्यात् । तच्च मरणजन्मनोरान्तरालं गतं शरीरं मनसः स्वर्गनारकादिवेशं प्रतिवहनधर्मकत्वादातिवाहिकमित्युच्यते । ततो द्वन्द्वे कालदिगात्ममनांसि । चः समुच्चये। $ ४६७. तत्र पृथिव्यापस्तेजोवायुरित्येतच्चतुःससचं द्रव्यं प्रत्येक नित्यानित्यभेदाद्विप्रकारम् । तत्र परमाणुरूपं नित्यं “सदकारणवन्नित्यम्" [ वैशे. सू. ४।१।१ ] इति वचनात् । तदारब्धं तु द्वयणुकादिकार्यद्रव्यमनित्यम् । आकाशादिकं नित्यमेव, अनुत्पत्तिमत्त्वात् । . ६४६८. एषां च द्रव्यत्वाभिसंबन्धाद् द्रव्यरूपता । द्रव्यत्वाभिसंबन्धश्च व्यत्वसामान्योपलक्षितः समवायः। तत्समवेतं वा सामान्यम् । एतच्च द्रव्यत्वाभिसंबन्धादिकमितरेभ्यो गुणादिभ्यो व्यवच्छेदकमेषां लक्षणम् । एवं पृथिव्यादिभेदानामपि पाषाणादीनां पृथिवीत्वाभिसंबन्धादिक त्पत्तिसे ज्ञात होता है कि कोई ऐसा सूक्ष्म पदार्थ अवश्य है जिसके क्रमिक संयोगसे ज्ञान एक साथ उत्पन्न न होकर क्रमसे ही उपजते हैं। आत्मा, इन्द्रिय और पदार्थका संयोग इनसे भिन्न एक मन नामका कारण अवश्य है, जिसका जिस इन्द्रियसे संयोग होता है उसी इन्द्रियसे ज्ञान उत्पन्न होता है अन्यसे नहीं है । इसीका संयोग ज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण होता है। यदि मनका संयोग न हो तो ज्ञान उत्पन्न ही नहीं हो सकता। यही मन मृत शरीरसे निकलकर स्वर्ग आदिमें जाता है और वहाँ स्वगीय दिव्य शरीरसे सम्बन्ध करके उसका उपभोग करता है। जब मनुष्य मरता है तब मनका स्थूल शरीरसे सम्बन्ध छट जाता है। वह उस समय अदृष्ट पुण्य-पापके अनुसार वहीं बने हुए अत्यन्त सूक्ष्म आतिवाहिक लिंग शरीरमें घुस जाता है और उसीके द्वारा वह स्वर्ग आदि तक पहुंचता है । जीवके पुण्य-पापके अनुसार मरनेके बाद ही परमाणुओंमें क्रिया होकर व्यणुकत्र्यणुक आदि क्रमसे अत्यन्त सूक्ष्म आतिवाहिक शरीर बन जाता है । यह शरीर इतना सूक्ष्म होता है कि आँखोंसे नहीं दिखाई देता और न किसी अन्य इन्द्रियसे भी इसका परिज्ञान हो पाता है। अकेला मन इस आतिवाहिक शरीरके बिना इतनी दूर तक नहीं जा सकता । यह मरण और नूतन जन्मके बीच में रहनेवाला सूक्ष्म शरीर मनको स्वर्ग और नरक आदि तक ढोता है-पहुँचा देता है अतः इसे ढोनेवाला आतिवाहिक शरीर कहते हैं। काल आदिका द्वन्द्व समास करना चाहिए। 'च' शब्द समुच्चयार्थक है। $४६७. पृथिवी, जल, अग्नि और वायु ये चार द्रव्य नित्य भी होते हैं तथा अनित्य भी। परमाणरूप पथिवी आदि नित्य हैं। कहा भी है-"सत होकर भी जो वस्त कारणोंसे उत्पन्न न हो उसे नित्य कहते हैं।" परमाणुरूप द्रव्य सत् तो हैं ही और किसी अन्य कारणसे उत्पन्न भी नहीं होते अतः वे नित्य हैं। इन परमाणुओंके संयोगसे बने हुए द्वयणुक आदि स्थूल कार्य द्रव्य अनित्य हैं। आकाश आदि द्रव्य किसी कारणसे उत्पन्न न होनेके कारण नित्य ६४६८. द्रव्यत्व नामक जातिका सम्बन्ध ही इनमें द्रव्यरूपता लाता है तथा 'द्रव्य द्रव्य यह अनुगत व्यवहार कराता है' द्रव्यत्वका द्रव्यके साथ समवाय सम्बन्ध होता है। समवाय तो नित्य और एक है अतः द्रव्यत्व विशेषणवाला समवाय या समवायसे सम्बद्ध द्रव्यत्व द्रव्योंमें द्रव्यरूपताके प्रयोजक होते हैं। यह द्रव्यत्वका समवाय गुणादि पदार्थोसे द्रव्यको व्यावृत्त करता है तथा उनमें 'द्रव्य द्रव्य व्यवहार कराता है। अतः यह द्रव्यका व्यवच्छेदक लक्षण असाधारण स्वरूप है। इसी तरह पृथिवीमें पृथिवीत्वका समवाय, जलमें जलत्वका समवाय, वायुमें वायुत्वका समवाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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