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________________ -का० ६१. ६४६६ ] वैशेषिकमतम् । ४०९ पारिशेष्यात्कालः स चैको नित्योऽमूर्तो विभुर्द्रव्यं च । 5 ४६४. 'दिगपि द्रव्यमेका नित्यामूर्ता विभुश्च (विम्वी च )। मूर्तेष्वेव हि द्रव्येषु मूर्त द्रव्यमवधिं कृत्वेदमस्मात्पूर्वेण दक्षिणेन पश्चिमेनोत्तरेण पूर्वदक्षिणेन दक्षिणापरेणापरोत्तरेणोत्तरपूर्वेणाधस्तादुपरिष्टादित्यमी दशप्रत्यया यतो भवन्ति, सा दिगिति । एतस्याश्चैकत्वेऽपि प्राच्यादिभेदेन नानात्वं कार्यविशेषाद्वयवस्थितम् । ६४६५. आत्मा जीवोऽनेको नित्योऽमूर्तो विभुर्द्रव्यं च । ४६६. मनश्चित्तं, तच्च नित्यं द्रव्यमणुमात्रमनेकमाशुसंचारि प्रतिशरीरमेकं च । 'युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्, आत्मनो हि सर्वगतत्वाद युगपदनेकेन्द्रियार्थसंनिधाने सत्यपि क्रमेणैव ज्ञानोत्पत्त्युपलम्भादनुमोयते । आत्मेन्द्रियार्थसंनिकर्षेभ्यो व्यतिरिक्तं कारणान्तरं मनोऽस्तीति, यस्य यही प्रत्यय होंगे। अतः इनसे भिन्न निमित्त सिवाय कालके दूसरा नहीं हो सकता। इस तरह अन्य सब सम्भवित निमित्तोंका निषेध होनेपर अन्त में परिशेष न्यायसे कालद्रव्यकी सिद्धि होती है। यह कालद्रव्य नित्य एक अमूर्त तथा व्यापक है। ४६४. दिग् द्रव्य भी नित्य अमूर्त एक तथा व्यापक है। मूर्त पदार्थों में एक दूसरेकी अपेक्षा यह इससे पूर्वमें, दक्षिणमें, पश्चिममें, उत्तरमें, आग्नेय कोणमें, नैऋत्य कोणमें, वायव्य कोणमें, ईशान कोणमें, ऊपर या नीचे है। ये दस प्रत्यय जिसके निमित्तसे होते हैं वही दिशा है। यद्यपि यह एक है फिर भी मेरुके चारों ओर घूमनेवाले सूर्यका जब भिन्न-भिन्न दिशाके प्रदेशोंमें रहनेवाले लोकपालोंके द्वारा ग्रहण किये गये दिशाके प्रदेशोंसे संयोग होता है तब उसमें पूर्वपश्चिम आदि व्यवहार होने लगते हैं। दस प्रकारके प्रत्ययोंसे भी दिशा-पूर्व आदि दश भेदोंका अनुमान भली-भांति किया जा सकता है। ६४६५, आत्मा जीव, यह नित्य अमूर्त तथा व्यापक होकर भी अनेक हैं। ६४६६. मन-चित्त, यह नित्य है, परमाणु रूप है, अनेक है, तथा हर एक शरीरमें एकएक रहता है तथा बहुत ही शीघ्र सारे शरीरमें गति करता है । एक साथ अनेक ज्ञानोंकी उत्पत्ति न होना ही मनके सद्भावका प्रबल साधक है। आत्मा तो सर्वव्यापक है, अतः उसका एक साथ सभी इन्द्रियोंके साथ संयोग है हो । पदार्थों के साथ इन्द्रियोंका भी युगपत् संयोग हो हो सकता है। एक गरम पूड़ीको खाइए, उसके रूप, रस, गन्ध आदि सभीके साथ इन्द्रियोंका युगपत् सम्बन्ध हो रहा है। फिर भी रूपादि पांचों ज्ञान एक साथ उत्पन्न न होकर क्रमसे ही होते है। इस क्रमो १. "दिक् पूर्वापरादिप्रत्ययलिङ्गा। मूर्तद्रव्यमवधिं कृत्वा मूर्तेष्वेव द्रव्येष्वेतस्मादिदं पूर्वेण दक्षिणे पश्चिमेनोत्तरेण पूर्वदक्षिणेन दक्षिणापरेण अपरोत्तरेण उत्तरपूर्वेण चाधस्तादुपरिष्टाच्चेति दश प्रत्यया यतो भवन्ति सा दिगिति, अन्यनिमित्तासंभवात् ।....दिग् लिङ्गाविशेषादञ्जसैकत्वेऽपि दिश; परममहर्षिभिः श्रुतिस्मृतिलोकसंव्यवहारार्थ मेरुं प्रदक्षिणमावर्तमानस्य भगवतः सवितुर्ये संयोगविशेषाः लोकपालपरिगहीतदिकप्रदेशानामन्वर्थाः प्राच्यादिभेदेन दशविधाः संज्ञाः कृताः अतो भक्त्या दश दिशः सिद्धाः।" -प्रश. मा. पृ. २८ । २. “आत्मत्वाभिसंबन्धादात्मा ।...तथा चात्मेति वचनात्परममहत्परिमाणम् ।-प्रश. मा. पू. ३०। ३. "मनस्त्वयोगान्मनः । सत्यप्यात्मेन्द्रियार्थसान्निध्ये ज्ञानसुखादीनामभूत्वोत्पत्तिदर्शनात् करणान्तरमनुमीयते । श्रोत्राद्यव्यापारे स्मृत्युत्पत्तिदर्शनात् बाह्येन्द्रियैरगृहीतसुखादिग्राह्यान्तरभावाच्चान्तःकरणम् ।"....प्रयत्नज्ञानायोगपद्यवचनात् प्रतिशरीरमेकत्वं सिद्धम् । पृथक्त्वमप्यत एव । तदभाववचनादणुपरिमाणम् ।.... प्रयत्नादृष्टपरिग्रहवशादाशुसंचारि चेति ।" -प्रश. मा. पृ. ३६ । ४. न्यायसू. १११११६ । ५२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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