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________________ ४०८ षड्दर्शनसमुच्चये [का० ६१. ६ ४६२काठिन्यलक्षणा मृत्पाषाणवनस्पतिरूपा। जलमापः तच्च सरित्समुद्रकरकादिगतम् । तेजोऽग्निः, तँच्च चतुर्धा, भौमं काष्ठेन्धनप्रभवम्, दिव्यं सूर्यविधुवादिजम्, आहारपरिणामहेतुरौदर्यम्, आकरजं च सुवर्णादि । अनिलो वायुः । एतानि चत्वार्यनेकविधानि । ६४६२. अन्तरिक्षमाकाशम् । तच्चैकं नित्यममूतं विभु च द्रव्यम् । विभुशब्देन विश्वव्यापकम् । इदं च शब्देन लिङ्गनावगम्यते, आकाशगुणत्वाच्छब्दस्य । द्वन्द्वे भूजलतेजोऽनिलान्तरिक्षाणि । ६४६३. कालः परापरव्यतिकरयोगपद्यायोगपद्यचिरक्षिप्रप्रत्ययलिङ्गो द्रव्यम् । तथाहिपरः पितापरः पुत्रो युगपदयुगपद्वा चिरं क्षिप्रं कृतं करिष्यते वेति यत्परापराविज्ञानं तदादित्या. दिक्रियाद्रव्यव्यतिरिक्तपदार्थनिबन्धनं तत्प्रत्ययविलक्षणत्वात् घटादिप्रत्ययवत् । योऽस्य हेतुः स छाया और अन्धकार द्रव्य नहीं हैं। छाया और अन्धकार तेजोद्रव्यके अभाव रूप हैं, अतः वे अभावपदार्थ हैं न कि द्रव्यपदार्थ । भू-पृथिवी। पृथिवी कठोर होती है, जैसे मिट्टी, पत्थर, वृक्ष आदि । जल-पानी, नदी, समुद्र, बरफ आदि अनेक रूपोंमें मिलता है। तेज-आग। आग चार प्रकार की है-१ लकड़ी आदि इंधनसे सुलगनेवाली भौम जातिको, २. सूर्य, बिजली आदिमें व्य जातिकी, ३. जठराग्नि, इससे भोजन आदि पचते हैं। ४. आकरज-खनिज सुवर्णादि पदार्थों में रहनेवाली । अनिल-वायु । ये चारों द्रव्य अनेक रूपोंमें देखे जाते हैं। ६४६२. अन्तरिक्ष-आकाश । आकाश नित्य एक अमूर्त तथा व्यापक द्रव्य है । विभुका अर्थ है विश्वव्यापक । शब्द आकाशका गुण है, अतः शब्द नामक लिंगसे ही आकाशका अनुमान होता है । भू जल आदिका द्वन्द्व समास करना चाहिए। $ ४६३. दिशा गुण जातिकी अपेक्षा जिस समीपवर्ती अधमजातीय मूर्ख बूढ़े पुरुषमें अपर प्रत्यय होता है उसीमें काल द्रव्य जवान विद्वान् युवकको अपेक्षा परप्रत्यय कराता है। तथा जिस दूरदेशवर्ती जवान विद्वान् युवकमें दिशा आदिकी अपेक्षा परप्रत्यय होता है उसीमें काल, द्रव्य, अधमजातीय मूर्ख बूढ़ेको अपेक्षा अपर प्रत्यय कराता है। इस तरह यह पर और अपर प्रत्ययोंकी विपरीतता दिशा आदिसे भिन्न काल द्रव्यकी सत्ता सिद्ध करती है । 'यह कार्य एक साथ किया गया, यह क्रमसे किया गया, यह जल्दो किया गया, यह देरीसे किया गया' इत्यादि काल सम्बन्धी प्रत्यय भी कालकी सत्ता सिद्ध करते हैं। पिता जेठा है. पत्र लहरा है. यगपत क्र शीघ्र, धीरे-धीरे कार्य किया या किया जायेगा' इत्यादि परापरादिप्रत्यय, सूर्यको गति तथा अन्य द्रव्योंसे उत्पन्न नहीं होकर किसी दूसरे द्रव्यकी अपेक्षासे होते हैं, क्योंकि सूर्यकी गति आदिमें होनेवाले प्रत्ययोंसे ये प्रत्यय विलक्षण प्रकारके हैं। जिस प्रकार घटसे होनेवाला 'यह घट है' यह प्रत्यय सूर्यकी गति आदिसे भिन्न घट नामक पदार्थकी अपेक्षा रखता है उसी तरह परापरादि प्रत्यय भी सूर्यकी गति आदिसे भिन्न काल द्रव्यको अपेक्षा रखते हैं। सूर्यको गतिमें तो यह सूर्यको गति है' यह प्रत्यय होगा, सफेद बालोंमें या मुंहपर पड़ी हुई झुर्रियोंमें भी 'सफेद बाल, झुर्रियां' १. "अप्त्वाभिसंबन्धादाप ।...विषयस्तु सरित्समुद्रहिमकरकादिः ।"-प्रश. मा. पृ. १४ । २. समुद्रसरित्करका- भ. २ । ३. "तेजस्वाभिसंबन्धात् । तेजः।....विषयसंज्ञक चतविधम् .... सुवर्णादि ।"प्रश. भा. पृ. १५। ४. तच्चतुर्घा म. १, २, प. १,२। ५. "वायुत्वाभिसंबन्धाद्वायुः ।"प्रश, भा. पृ. १६ । ६. तत्राकाशस्य गुणाः शब्दसंख्यापरिमाणपथक्त्वसंयोगविभागा:...शब्दलिङ्गाविशेषादेकत्वं सिद्धम्...विभववचनात् परममहत्परिमाणम् ।"-प्रश. भा. पृ. २३-२५। ७. काल: परापरव्यतिकरयोगपद्यायोगपद्यचिरक्षिप्रप्रत्ययलिङ्गम् । ...काललिङ्गाविशेषादेकत्वं सिद्धम् ।....कारणे काल इति वचनात परममहत्परिमाणम् ।"-प्रश. मा. पृ. २६ । ८. परः पिता पुत्रात्परः पुत्रः पितुः युग-म,२। स, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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