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________________ ४१४ षड्दर्शनसमुच्चये [ का. ६३ ६ ४७४ - रूपादीनामिव नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः अनेकद्रव्यायास्त्वेकत्वेभ्योऽनेकविषयबुद्धिसहितेभ्यो निष्पत्तिः । अपेक्षाबुद्धिविनाशाच्च विनाशः कचित्त्वाश्रयविनाशादिति ।। ४७४. प्राप्तिपूर्विका ह्यप्राप्तिविभागः, अप्राप्तिपूर्विका च प्राप्तिः संयोगः। एतो च द्रव्येषु यथाक्रमं विभक्तसंयुक्तप्रत्ययहेतू । अन्यतरोभयकर्मजो विभागसंयोगौ च यथाक्रमम् । ६४७५. परिमाणव्यवहारकारणं परिमाणम् । तच्चतुर्विधं, महदणु दोघं ह्रस्वं च । तत्र महद्विविधं, नित्यमनित्यं च । नित्यमाकाशकालविगात्मसु परममहत्त्वम् । अनित्यं द्वयणुकादिषु द्रव्येषु । अण्वपि नित्यानित्यभेदाद्विविधम् । परमाणुमनःसु पारिमाण्डल्यलक्षणं नित्यम् । अनित्यं द्वचणुक एव । बदरामलकबिल्वादिषु बिल्वामलकबदरादिषु च क्रमेण यथोत्तरं महत्त्वस्याणुत्वस्य च व्यवहारो भाक्तोऽवसेयः, आमलकादिषुभयस्यापि व्यवहारात् । एवमिक्षौ समिद्वंशाद्यपेक्षया ह्रस्वत्वदीर्घत्वयोक्तित्वं ज्ञेयम् । पदार्थों को देखकर 'यह एक यह एक और यह एक' ऐसी अनेक पदार्थों के एकत्वको विषय करनेवाली अपेक्षाबुद्धि होती है। इस अपेक्षाबुद्धिसे उन पदार्थोंसे द्वित्व आदि संख्याएं उत्पन्न होती हैं। जब यह अपेक्षाबुद्धि नष्ट हो जाती है तब संख्याका भी नाश हो जाता है। तात्पर्य यह कि द्वित्व आदि संख्याएं रूपादिकी तरह घड़ेके पूरे समय तक स्थिर नहीं रहती। वे तो जो व्यक्ति देखता है उसकी अपेक्षा बद्धिसे उत्पन्न होकर अपेक्षा बुद्धिके समाप्त होते हो नष्ट हो जाती है। जिन दो जलके बुबुदोंमें किसी व्यक्तिको अपेक्षा बुद्धिसे द्वित्व संख्या उत्पन्न हुई थो और वे बुद्बुद जब दूसरे ही क्षणमें नष्ट हो गये तब वह द्वित्व संख्या भी आधारभूत द्रव्यके नाशसे ही नष्ट हो जायेगी। ६४७४. जो पदार्थ आपसमें संयुक्त थे-मिले हुए थे, उनका बिछुड़ जाना—अलग-अलग हो जाना विभाग है । जो पदार्थ बिछुड़े हुए हैं उनका आपसमें मिल जाना संयोग है । ये पदार्थों में क्रमसे 'विभक्त-बिछुड़े हुए और संयुक्त-मिले हुए' यह प्रत्ययव्यवहार कराते हैं। संयोग और विभाग किसी एक पदार्थमें क्रिया होनेसे भी होते हैं जैसे ढूंठपर पक्षीका बैठ जाना और उड़ जाना तथा दोनों पदार्थों में क्रिया होनेसे भी होते हैं जैसे दो पहलवानोंका कुश्ती लड़ते समय आपसमें मिलना तथा बिछुड़ना। ६४७५. हलका, भारी, छोटा, बड़ा, लम्बा आदि माप और नामके व्यवहारमें कारणभूत गुण परिमाण है । महत्-बड़ा, अणु-छोटा, दीर्घ-लम्बा, और ह्रस्व-ठिगनाके भेदसे परिमाण चार प्रकारका है । महापरिमाण दो प्रकारका है-एक नित्य और दूसरा अनित्य । आकाश, काल, दिशा और समस्त आत्माओंमें सर्वोत्कृष्ट नित्य महापरिमाण है। द्वयणुक आदि द्रव्योंमें अनित्य महापरिमाण है । अणुपरिमाण भी नित्य और अनित्य दोनों ही प्रकारका होता है। परमाणु और मनमें नित्य अणुपरिमाण होता है। इसकी 'पारिमाण्डल्य' संज्ञा है अर्थात् अणुपरिमाण गोल होता है। अनित्य अणुपरिमाण केवल द्वयणुकमें ही होता है, बेर, आंवला, बेल आदि मध्यम परिमाणवाले द्रव्योंमें एक दूसरेकी अपेक्षा जो छोटा और बड़ा या दोनों प्रकारके व्यवहार होते हैं वे गौण हे मुख्य नहीं हैं, अनियत हैं। वही आंवला बेरकी अपेक्षा बड़ा भी है और बेलकी अपेक्षा छोटा भी। इसी तरह ईखमें समित्यज्ञमें जलायी जानेवाली छोटी-छोटी छिपटियोंकी अपेक्षा लम्बापन होनेपर भी लम्बे बाँसकी अपेक्षा ठिगना-छोटापन भी है अतः उसमें लम्बी और छोटी दोनों ही व्यवहार गौण हैं अनियत हैं। १. प्राप्तिपूर्वकाप्राप्तिविभागः।"-प्रश. मा. पृ. ६७ । २. "अप्राप्तयोः प्राप्तिसंयोगः।" -प्रश. मा. पृ. २। ३. "परिमाणं मानव्यवहारकारणम्..." -प्रश. मा. पृ. म, । ४. नित्यं द्वयणक-भ.२।५.-रो विभक्तो आ., क..-रो भको म.२। ६.-योर्भक्तत्वं म. २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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