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अहम् अथ पञ्चमोऽधिकारः
$ ४५६. अथ वैशेषिकमतविवक्षया प्राह
देवताविषयो भेदो नास्ति नैयायिकैः समम् ।
वैशेषिकाणां तत्वे तु विद्यतेऽसौ निदश्यते ॥१९॥ $ ४ ५७. व्याख्या-अस्य लिङ्गवेषाचारदेवादिनैयायिकप्रस्तावे प्रसङ्गेन प्रागेव प्रोचानम् । मुनिविशेषस्य कापोती वृत्तिमनुष्ठितवतो रथ्यानिपतितांस्तण्डुलकणानादायादाय कृताहारस्याहारनिमित्तात्कणाद इति संज्ञा अजनि । तस्य कणादस्य मुनेः पुरः शिवेनोलकरूपेण मतमेतत्प्रकाशितम्। तत औलक्यं प्रोच्यते । पशुपतिभक्तत्वेन पाशुपतं चोच्यते। कणादस्य शिष्यत्वेन वैशेषिकाः काणादा भण्यन्ते । आचार्यस्य च प्रागभिधानीपरिकर इति नाम समाम्नायते।
६४५८. अथ प्रस्तुतं प्रस्तूयते। देव एव देवता तद्विषयो भेदो-विशेषो वैशेषिकाणां नैयायिकैः समं नास्ति एतेन यादृग्विशेषण ईश्वरो देवो नैयायिकैरभिप्रेतः, तादृग्विशेषणः स एव वैशेषिकाणामपि देव इत्यर्थः। तत्त्वे तु तत्त्वविषये पुनविद्यते भेवः। असौ तत्त्वविषयो भेदो 'निदर्यते-प्रदर्यते ॥५९॥
६४५६. अब वैशेषिक मतका निरूपण करते हैं
वैशेषिकोंके देवताके स्वरूपमें नैयायिकोंसे कोई मतभेद नहीं है। हाँ, तत्त्वोंको संख्या तथा स्वरूपका विषयमें जितना मतभेद है वह दिखाते हैं ।।५९॥
६४५७. वैशेषिकोंके लिंग वेष आचार तथा देवता आदिका स्वरूप नैयायिकमतके निरूपणके समय प्रसंगसे बता दिया गया है। एक विशिष्ट मुनि कापोती वृत्तिसे. मार्गमें पड़े हुए चावलोंको उठा-उठाकर अपनी उदरपूरणा करते थे। अतः उनकी कणाद-कणको आद-खानेवाला संज्ञा थी। लोग उन निस्पृही साधुको कणाद कहते थे। जिस तरह कबूतर रास्तेमें पड़े हुए चावलोंकी कनीको चोंचसे बीन-बीनकर खाते हैं उसी तरह किसी गृहस्थसे याचना किये बिना रास्ते में पड़े हुए निकम्मे अन्नसे भोजन करना कापोती वृत्ति है। उन कणाद ऋषिके सामने शिवजीने उल्लूके शरीरको धारण करके इस वैशेषिक मतका आदिमें निरूपण किया था, अतः इस मतको औलूक्य दर्शन भी कहते हैं, वैशेषिक लोग पशुपति-शिवके भक्त होते हैं, अतः यह दर्शन पाशुपतदर्शन भी कहा जाता है, उन कणाद-ऋषिने सर्वप्रथम 'कणादसूत्र' की रचना की तथा वैशेषिक कणादके ही शिष्य हैं अतः इन्हें काणाद भी कहते हैं। आचार्यका 'प्रागभिधानी परिकर' यह नाम कहते हैं।
४५८. देवको ही देवता कहते हैं। जिस प्रकार नैयायिक लोग नित्य सर्वज्ञ सृष्टिकर्ता आदि रूपसे ईश्वरको देवता मानते हैं वैशेषिक भी उसी तरह ईश्वरको ही देवता मानते है । अतः नैयायिक और वैशेषिकोंमें देवताके विषयमें कोई मतभेद नहीं है । तत्त्वविषयक मतभेद काफी है अतः वही तत्त्वविषयक मतभेद दिखाया जाता है
१. प्रागभिधानोपकरिकरः म. १। प्रागभिधानोपरिकरः म. १, प. १, २, क.। २. निदर्श्यते तमेवाह म.२।
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