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षड्दर्शनसमुच्चये
[का० ५८ ६४४५द्वषलाः परिभुञ्जते, तस्मावपहरन् ब्राह्मणः स्वमावत्ते स्वमेव ब्राह्मणो भुङ्क्ते स्वं वस्ते स्वं ददातोति । ६४४५. तथा "अपुत्रस्य गतिर्नास्ति [ ] इति लपित्वोक्तम्
"अनेकानि सहस्राणि कुमारब्रह्मचारिणाम् । दिवंगतानि विप्राणामकृत्वा कुलसंततिम् ॥१॥" इत्यादि ॥ तथा "न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने ।
प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ॥१॥" [ मनु. ५।५६ ] इति स्मृतिगते श्लोके । यदि प्रवृत्तिनिर्दोषा, तदा कथं ततो निवृत्तिस्तु महाफलेति व्याहतमेतत् ।
६४४६. वेदविहिता हिंसा धर्महेतुरित्यत्र प्रकट एब स्ववचनविरोधः, तथाहि-धर्महेतुश्चेद्धिसा कथम् । हिंसा चेद्धर्महेतुः कथम् । न हि भवति माता च वन्ध्या चेति । धर्मस्य च लक्षणमिदं श्रूयते।
"श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥१॥ [ चाणक्य ११७] इत्यादि अचिर्मार्गप्रपन्नैर्वेदान्तवादिभिहिता चेयं हिंसा ।
"अन्धे तमसि मज्जामः पशुभिर्ये यजामहे ।
हिंसा नाम भवेद्धर्मो न भूतो न भविष्यति ।।१।।" इति ।। अपने ही धनका उपभोग करता है, अपना ही पहनता-ओढ़ता है और अपना ही देता है, यह सब उसीका है।" इन वाक्योंसे ब्राह्मणोंको चोरीमें केवल दोषका अभाव ही नहीं बताया है किन्तु उन्हें अप्रत्यक्ष रूपसे चोरी करनेकी प्रेरणा भी की है।
४४५. इसी तरह एक जगह "जिसके पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ उस अपुत्री व्यक्तिको गति नहीं होती वह तिरता नहीं है" यह कहकर भी अन्यत्र "हजारों ब्रह्मचारी विप्रकुमार अपनी कुल परम्परा चलाये बिना ही स्वर्ग गये हैं।" इस वाक्यसे ब्राह्मणोंकी अपुत्रताको स्वर्गमें कारण कहा है । "मांस खानेमें, शराब पीनेमें तथा मैथुनभोग-विलासमें कोई दोष नहीं है। इनमें तो प्राणियोंकी प्रवृत्ति स्वभावतः होती ही है, हां इनका त्याग करना अवश्य ही महान् फलको देता है।" इस मनस्मतिके श्लोकमें साफ-साफ विरोधी बातोंका प्रतिपादन किया है। यदि जीकोंकी मांसभक्षणादि प्रवृत्ति निर्दोष है तो उससे निवृत्त होनेमें पुण्य कैसे हो सकता है ! कौन ऐसा मूर्ख होगा जो मांसभक्षणादिको निर्दोष जानकर भी उनसे निवृत्त होगा और उनका परित्याग करेगा। प्रवृत्तिमें यदि दोष नहीं है तो निवृत्तिका बहुत फल कैसे हो सकता है ?
४४६. वेदविहित याज्ञिक हिंसाको धर्म कहना तो सरासर स्ववचन विरोध है। यदि वह धर्म हेतु है तो हिंसा कैसे हो सकती है। यदि वह हिंसा है तो धर्म हेतु कैसे हो सकती है। 'माता भी हो और वन्ध्या भी' यह तो असम्भव बात है। हिंसा त्रिकालमें भी धर्मका कारण नहीं हो सकती। देखो, आपके ही शास्त्रों में धर्मका अहिंसात्मक ही लक्षण बताया है-"जो व्यवहार हमको प्रतिकल मालम होता हो अच्छा न लगता हो दःखदायक हो वैसा व्यवहार दूसरोंके साथ नहीं करना चाहिए, यही सब धर्मोंका सार है, यह धर्म सर्वस्व है, इसे अच्छी तरह सुनकर धारण करो।" अचिमार्गीवेदान्तियोंने इस वैदिको हिंसाकी बड़े ही कठोर और मार्मिक शब्दोंमें निन्दा की है-"यदि हम पशुओंका वध करके ईश्वरकी पूजा करते हैं तो घोर अन्धकारमें डूबते हैं । हिंसा कभी भी धर्मरूप न हुई है और न होगी।"
१. -व भुङ्क्ते भ. ।। २. तथा "अपुत्रस्य गति स्ति" इति लपित्वा, "अनेकानि सहस्राणि........" -स्या. मं. पृ. ५२ । ३. उद्धृतोऽयम्-स्था. मं. पृ. १३० ।
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