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________________ - का० ५८.६४५१] जैनमतम् । ४०३ $ ४४७. तथा भवान्तरं प्राप्तानां तृप्तये च श्राद्धादिविधानं तदप्यविचारितरमणीयम् । तथा च तद्यूथिनः पठन्ति "मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेत्तृप्तिकारणम् । तन्निर्वाणप्रदीपस्य स्नेहः संवर्धयेच्छिखाम् ॥१॥” इति एवमन्यान्यपि पुराणोक्तानि पूर्वापरविरुद्धानि संदेहसमुच्चयशास्त्रादत्रावतार्य वक्तव्यानि । ६४४८. तथा नित्यपरोक्षज्ञानवादिनो भट्टाः स्वात्मनि क्रियाविरोधाज्ञानं स्वाप्रकाशकमभ्युपगच्छन्तः प्रदीपस्य परं (स्व) प्रकाशकमनङ्गीकुर्वन्तश्च कथं सद्भूतार्थभाषिणः। ६४४९. तथा ब्रह्माद्वैतवादिनोऽविद्याविवेकेन सन्मानं प्रत्यक्षात्प्रतियन्तोऽपि न निषेधकं प्रत्यक्षमिति ब्रुवाणाः कथं न विरुद्धवादिनः, अविद्यानिरासेन सन्मात्रस्य ग्रहणात् । ४५०. तथा पूर्वोत्तरमीमांसावादिनः कथमपि देवमनङ्गोकुर्वाणा अपि सर्वेऽपि ब्रह्मविष्णुमहेश्वरादीन्देवान्पूजयन्तो ध्यायन्तो वा दृश्यन्ते । तदपि पूर्वापरविरुद्धम् इत्यादि। ६४५१. अथवा ये ये बौद्धादिदर्शनेषु स्याद्वादाभ्युपगमाः प्राचीनश्लोकव्याख्यायां प्रदशिताः ते सर्वेऽपि पूर्वापरविरुद्धतयात्रापि सर्वदर्शनेषु यथास्वं वर्शयितव्याः, यतो बौद्धादय उक्त. ६४४७. परलोकमें पहुंचे हुए मृत व्यक्तियोंकी तृप्तिके लिए श्राद्ध आदि करना तो सचमुच बड़ो भारी मूर्खता है । तुम्हारे ही साथियोंने कहा है कि-"यदि मरे हुए प्राणी श्राद्धमें दिये गये अन्न-जलसे तृप्त होते हों तो बुझा हुआ दीपक भी तेल डालने मात्रसे जलने लगना चाहिए।" इसी तरह पुराणोंमें तो अनेकों पूर्वापरविरोधी कथन भरे पड़े हैं। इनके विवरणके लिए 'सन्देह समुच्चय शास्त्र' देखना चाहिए। ४४८. ज्ञानको सदा परोक्ष माननेवाले भाट्ट लोग ज्ञानको स्वप्रकाशक नहीं मानते। ये भी 'स्वात्मामें क्रियाका विरोध है' यही दलील देते हैं। ये लोग दोपकको सरासर स्वपरप्रकाशक देखते हुए भी ज्ञानको स्वप्रकाशक नहीं मानते। यह इनका दुराग्रह तथा सर्वसिद्ध बातका हठात् लोप करना है। इस तरह इनको यथार्थवादी कैसे कह सकते हैं ? इनका प्रदीपकी प्रकाशकताका लोप करना तो सचमुच आँखोंमें धूल झोंकना ही है। ६४४९. ब्रह्माद्वैतवादी प्रत्यक्षसे अविद्या रहित सन्मात्र ब्रह्मको साक्षात्कार करते हैं परन्तु प्रत्यक्षको निषेधक-निषेध करनेवाला नहीं मानते। जब प्रत्यक्ष अविद्याका निषेध करके सन्मात्र ब्रह्मका अनुभव कर रहा है तो वह निषेधक तो अपने ही आप सिद्ध हो जाता है। प्रत्यक्षसे अविद्याका निषेध भी करना और उसे निषेधक भी नहीं मानना क्या स्ववचन विरोध नहीं है ? ६४५०. इसी तरह सभी पूर्वमीमांसा या उत्तरमीमांसा मतवाले शास्त्रों में किसी भी ईश्वरको स्वीकार नहीं करते, बल्कि ईश्वरका निषेध ही करते हैं। फिर भी वे व्यवहारमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि सभी देवोंकी पूजा-उपासना करते हैं । इन देवोंका ध्यान करते हैं । यह इनका स्वशास्त्र विरोध है। $ ४५१. अथवा पहले श्लोककी व्याख्यामें बौद्धादिदर्शनोंने जितने प्रकारसे स्याद्वादको स्वीकार करना बताया है वे सब प्रकार उनके पूर्वापर विरोधको स्पष्ट करनेके लिए यहां दिखाये जा सकते हैं । बौद्ध आदि उक्त प्रकारसे स्याद्वादको स्वीकार करके भी स्याद्वादका खण्डन करने के १. तथा च भ-भ. २। २. तनिर्वाणस्य प्र-प. १,२। निर्वाणस्य प्र-म.। ३. उद्धृतोऽयम्स्या. मं. पृ. १३४ । ४. -दवतार्य म.२ । ५. स्वप्रका-भ. २, आ.। ६. प्रकल्पिता म. २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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