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-का० ५८. ६४४४]
जैनमतम् । "महोक्षं वा महाजं वा श्रोत्रियाय प्रकल्पयेत्” [ याज्ञ. स्मृ. १९९ ] इति जल्पतो वेदस्य कथं न पूर्वापरविरोधः। तथा "न हिंस्यात्सर्वभूतानि" [
] इति प्रथममुक्त्वा पश्चात्तदागमे पठितमेवम्
"षट्शतानि नियुज्यन्ते पशूनां मध्यमेऽहनि ।
__अश्वमेधस्य वचनान्न्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः ॥१॥" [ ] तथा "अग्नीषोमीयं पशुमालभेत" [ऐतरेय आ. ६१३ ] "सप्तदश प्राजापत्यान्पशूनालभेत" [ तैत्ति. सं. ११४ ] इत्यादिवचनानि कथमिव न पूर्वापरविरोधमनुरुध्यन्ते ।
5 ४४३. तथानृतभाषणं प्रथम निषिध्य पश्चादूचे "ब्राह्मणार्थेऽनृतं ब्रूयात्" [ ] इत्यादि । तथा
"न नर्मयुक्तं वचनं हिनस्ति न स्त्रीषु राजन्न विवाहकाले। प्राणात्यये सर्वधनापहारे पश्चानृतान्याहुरपातकानि।" [वसि. धर्म. १६३३६ ]
$४४४. तथावत्तादानमनेकधा निरस्य पश्चादुक्तम् । यद्यपि 'ब्राह्मणो हठन परकीयमाक्ते बलेन वा, तथापि तस्य नावत्तादानं, यतः सर्वमिदं ब्राह्मणेभ्यो दत्तं ब्राह्मणानां नु दौर्बल्यावाक्योंका कथन है तथा अन्यत्र "श्रोत्रिय बाह्मणके आतिथ्यके लिए सांड़ या बकरेका भी उपयोग करे" इस सांड़ या बकरोंकी महाहिंसाका विधान है। इससे वेदका पूर्वापर विरोध साफसाफ मालूम हो जाता है। इसी तरह पहले "किसी भी प्राणीको नहीं मारना चाहिए" यह कहकर भी पीछे "अश्वमेध यज्ञके मध्यम दिनमें तीन कम छह सौ अर्थात् ५९७ पशुओंका वध किया जाता है"; "अग्निषोम यज्ञ सम्बन्धी पशुका वध करना चाहिए"; "प्रजापति यज्ञ सम्बन्धी सत्रह पशुओंका वध करना चाहिए" इत्यादि हिंसाका क्रूर विधान करना क्या पूर्वापर विरोध नहीं है ?
$४४३. इसी तरह पहले असत्य भाषणका निषेध करके पीछे "ब्राह्मणोंके लाभ के लिए झूठ बोलनेमें कोई दोष नहीं है" तथा "हे राजन्, हंसी-दिल्लगीमें झूठ बोलने में कोई हानि नहीं है, इसी तरह स्त्रियोंकी विलास गोष्ठीमें, विवाहके समय हंसी-खुशीमें, प्राणोंके नाशका समय उपस्थित होनेपर तथा समस्त धनके लटनेके मौकेपर झठ बोलने में कोई दोष नहीं है। ये पांच असत्यवचन क्षम्य हैं, पापरूप नहीं हैं।" इत्यादि रूपसे असत्यभाषणका विधान करना मीमांसकोंके पूर्वापर विरोधको साफ-साफ प्रकट कर रहा है।
$४४४. इसी तरह चोरीका अनेक प्रकारसे निषेध करके भी यदि कोई हठसे या छलसे दूसरेके धनका हरण करता है, तो भी उसे चोरीका पाप नहीं लगता, क्योंकि संसारको समस्त सम्पत्ति ब्राह्मगोंको ही दी गयी थी, ब्राह्मण ही इस जगत् की सम्पत्तिके वस्तुतः स्वामी हैं, ब्राह्मणोंकी कमजोरीसे ही यह सम्पत्ति शूद्रोंके हाथमें पहुंची है, शूद्र इसका उपभोग कर रहे हैं, इसलिए यदि कोई ब्राह्मण दूसरोंके या खासकर शूद्रोंके धनको छीनता है तो वह अपने ही धनको लेता है,
१. "तथाहि "न हिंस्यात् सर्वभूतानि" इति प्रथममुक्त्वा, पश्चात् तत्रैव पठितम्-"षट्शतानि नियुज्यन्ते पशूनां मध्यमेऽहनि । अश्वमेधस्य वचनान्न्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः ॥" तथा "अग्नीषोमीयं पशुमालभेत", "सप्तदश प्राजापत्यान् पशूनालभेत" इत्यादिवचनानि कथमिव न पूर्वापरविरोधमनुरुध्यन्ते । तथा 'नानृतं ब्रूयात्" इत्यादिना अनृतभाषणं प्रथमं निषिध्य, "ब्राह्मणार्थेऽनृतं ब्रूयात्" इत्यादि तथा-"न नर्मयुक्त..."-स्या. मं.पृ. ५।। २. इत्यादीनि वचनानि म.३। ३. "सर्व स्वं ब्राह्मणस्येदं यत्किचिज्जगतीगतम । श्रेष्ठयेनाभिजनेनेदं सर्व वै ब्राह्मणोऽहति ॥ स्वमेव ब्राह्मणो भुङ्क्ते स्वं वस्ते स्वं ददाति च । आनुशंस्याद् ब्राह्मणस्य भुञ्जते हीतरे जनाः॥"-मनु. १११००-१०१।
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