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________________ ४०० षड्दर्शनसमुच्चये भवेत्, यतोऽत्र रूपं कार्ये विनष्टे सति निराश्रयं स्थितं सत् पश्चाद्विनश्येदिति । ६४४१. साङ्ख्यस्य त्वेवं स्ववचनविरोधः । प्रकृतिनित्यैका निरवयवा निष्क्रियाव्यक्ता चेष्यते । सैवानित्यादिभिर्महदादिविकारैः परिणमत इति चाभिधीयते तच्च पूर्वापरतोऽसंबद्धम् । अर्थाध्यवसायस्य बुद्धिव्यापारत्वाच्चेतनाविषयपरिच्छेदरहितार्थं न बुध्यत इत्येतत्सर्वलोकप्रतीतिविरुद्धम् । बुद्धिर्महदाख्या जडा न किमपि चेतयत इत्यपि स्वपरप्रतीतिविरुद्धम् । आकाशादिभूतपञ्चकं स्वरादितन्मात्रेभ्यः सूक्ष्मसंज्ञेभ्य उत्पन्नं यदुच्यते तदपि नित्यैकान्तवादे पूर्वापरविरुद्धं कथं श्रद्धेयम् । यथा पुरुषस्य कूटस्थनित्यत्वान्नं विकृतिर्भवति नापि बन्धमोक्षौ तथा प्रकृतेरपि न ते संभवन्ति कूटस्थ नित्यत्वादेव, कूटस्थनित्यं चैकस्वभावमिष्यते ततो ये प्रकृतेविकृतिर्बन्धमोक्षौ चाभ्युपगम्यन्ते परैः, ते नित्यत्वं च परस्परविरुद्धानि । ४४२. मीमांसकस्य पुनरेवं स्वमतविरोधः । "न हिस्यात्सर्वभूतानि” [ ] इति चाभिधाय । मानते हैं । यह स्पष्ट ही पूर्वापर विरोध है; क्योंकि जिस तरह उत्पत्ति के समय रूपादिमें निराधारताका भय था उसी तरह नाशके समय कार्यके नष्ट हो जानेपर कमसे कम एक क्षण तक तो उन्हें निराश्रय रहना ही होगा। तात्पर्य यह कि निराधारताके भयसे यदि रूपादि गुणोंकी उत्पत्ति कार्योत्पत्ति एक क्षण बाद मानी जाती है तो उनका नाश भी कार्यके साथ ही मानना चाहिए जिससे उन्हें निराश्रय न रहना पड़े न कि एक क्षण बाद । ] इति "न वे हिंस्रो भवेत् " [ [ का० ५८. ९ ४४१ Jain Education International $ ४४१. सांख्योंके मतमें स्ववचन विरोध अर्थात् पूर्वापर विरोध इस प्रकार है - वे जिस प्रकृति - प्रधानको निरवयव निष्क्रिय नित्य एक तथा अव्यक्त-कारणरूप मानते हैं, उसी प्रकृतिका अनित्य सावयव सक्रिय अनेक तथा कार्यरूप महान् अहंकार आदिरूपसे परिणमन मानते हैं । यह स्पष्ट ही स्ववचन विरुद्ध है - नित्य निष्क्रिय आदि धर्मोंवाली प्रकृतिका अनित्य और सक्रिय आदि धर्मवाले महान् आदिरूपसे परिणमन कैसे हो सकता है ? अर्थके निश्चयको - जड़ बुद्धिका धर्मं कहना तथा चैतन्यको बाह्य विषयोंके परिज्ञानसे शून्य कहना - चैतन्यको अर्थका ज्ञाता नहीं कहना, , लोकप्रतीति तथा अनुभव दोनोंसे विरुद्ध है । संसार यही मानता है तथा अनुभव भी ऐसा ही है कि चैतन्य बुद्धि उपलब्धि आदि पर्यायवाची हैं, एक हैं। चैतन्य ही पदार्थोंका मुख्यतः परिज्ञान करनेवाला है । महान् - बुद्धितत्त्व जड है, चेतन्यशून्य है, उसमें चेतना शक्ति नहीं है । यह बुद्धिको जड़ कहना भी प्रतीतिविरुद्ध है । ऐसी प्रतीति न तो स्वयं सांख्योंको ही हो सकती है और न हम लोगों को ही होती है । फिर, बुद्धि तो स्व और पर दोनोंका अनुभव करती है | यदि वह जड़ और चैतन्यशून्य है तो उसके द्वारा स्व तथा परका अनुभव नहीं हो सकेगा । शब्द रूप रस आदि सूक्ष्मसंज्ञक तन्मात्राओंसे आकाश अग्नि जल आदि पाँच महाभूतों की उत्पत्ति मानना सर्वथा नित्यत्वके विपरीत है । सर्वथा नित्य मानने में उत्पत्ति तो हो ही नहीं सकती। जिस तरह कूटस्थ नित्य - सदा एक स्वभाववाले पुरुषमें विकार तथा बन्ध मोक्ष आदि नहीं होते क्योंकि वह कूटस्थ नित्य है, उसी तरह प्रकृति में भी विकार और बन्धमोक्ष नहीं बन सकते; क्योंकि वह भी नित्य है । सदा एक स्वरूप रहनेवाला पदार्थ कूटस्थनित्य कहलाता है । अतः प्रकृतिको नित्य भी मानना तथा उसमें विकार और बन्ध मोक्ष भी मानना परस्पर विरोधी है । $४४२ मीमांसकों के मत में पूर्वापरविरोध इस प्रकार है- वेदमें एक स्थानपर तो "किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए, कभी भी हिंसक नहीं होना चाहिए" इन अहिंसक १. इत्येवाभि - म. २ । २. - नित्यचित्त्वान्न म २ । ३. वन्ति कूटस्थनित्यं भ. २ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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