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-का० ५८.६ ४४०]
जनमतम्। मित्यत्र सूत्रे संनिकर्षोपादानं निर्थरकं भवेत, ईश्वरप्रत्यक्षस्य संनिकर्ष विनापि भावात् । अथेश्वरप्रत्यक्षमिन्द्रियार्थसंनिकर्षोत्पन्नमेवाभिप्रेयत इति चेत्, उच्यते-नहीश्वरसंबन्धिमनसोऽणुपरिमाणवायुगपत्सर्वार्थः संयोगो भवेत्, ततश्चैकमथं स यदा वेत्ति तदा नापरान् सतोऽप्यर्थान् ततोऽस्मदादिवन्न तस्य कदापि सर्वज्ञता, युगपत्संनिकर्षासंभवेन सर्वार्थानां युगपदवेदनात् । अथ सर्वार्थानां क्रमेण संवेदनात् स सर्वज्ञ इति चेत्, न, बहुना कालेन सर्वार्थसंवेदनस्य खण्डपरशाविवास्मदादिध्वपि संभवात्तेऽपि सर्वज्ञाः प्रसजेयुः। अपि च अतीतानागतानामर्थानां विनष्टानुत्पन्नत्वादेव मनसा संनिकर्षो न भवेत् सतामेव संयोगसंभवात्तेषां च तदानीमसत्त्वात, ततः कथं महेश्वरस्य ज्ञानमतीतानागतार्थग्राहकं स्यात्, सर्वार्थग्राहकं च तज्ज्ञानमिष्यते ततः पूर्वापरो विरोधः सुबोधः।
६४३९. एवं योगिनामपि सर्वार्थसंवेदनं दुर्धरविरोधरुद्धमवबोद्धव्यम् ।
६४४०. कार्यद्रव्ये प्राणत्पन्ने सति तस्य रूप पश्चादुत्पद्यते निराश्रयस्य रूपस्य गुणत्वात्प्रागनुत्पादनेति पूर्वमुक्त्वा पश्चाच्च कार्यद्रव्ये विनष्टे सति तद्रूपं विनश्यतीत्युच्यमानं पूर्वापरविरुद्धं देश्य-निर्विकल्पक, अव्यभिचारी और व्यवसायात्मक ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं। इस प्रत्यक्षसूत्र में 'इद्धियार्थसन्निकर्षोत्पन्न' विशेषण निरर्थक ही है, क्योंकि ईश्वरका प्रत्यक्ष तो सन्निकर्षके बिना ही हो गया। यदि ईश्वरका प्रत्यक्ष भी इन्द्रिय और पदार्थके सन्निकर्षसे ही उत्पन्न होता है; तो ईश्वरके इन्द्रियाँ तो आप लोग मानते ही नहीं, रहा मन, सो उसके सन्निकर्षसे वह सर्वज्ञ नहीं बन सकता। ईश्वरका मन अणुरूप है, अतः उसका एक साथ समस्तपदार्थोंसे संयोग नहीं हो सकता। वह जिस समय एक अर्थको जानेगा उस समय वह अन्य विद्यमान भी पदार्थों को नहीं जान सकेगा। तात्पर्य यह कि वह हम लोगोंकी तरह कभी भी सर्वज्ञ नहीं हो सकेगा; क्योंकि जब समस्त पदार्थों के साथ युगपत् सन्निकर्ष ही नहीं हो सकता तब उनका परिज्ञान तो दूरकी बात है। यदि क्रमसे सभी पदार्थों के साथ सन्निकर्ष करके महेश्वर सर्वज्ञ बनते हैं, तो इस तरह क्रमिक सर्वज्ञता तो हम लोगोंको भी हो सकती है। धीरे-धीरे संसारके सभी पदार्थों का ज्ञान महेश्वरकी तरह हम लोगोंको भी हो सकता है। इस तरह सन्निकर्षके द्वारा वर्तमान पदार्थों के परिज्ञानकी समस्या किसी तरह सुलझ भी जाय; पर अतीत और अनागत पदार्थ तो विनष्ट तथा अनुत्पन्न हैं अतः उनके साथ मनका सन्निकर्ष तो हो ही नहीं सकता। संयोग तो मौजूद पदार्थोंसे होता है न कि अविद्यमान पदार्थों के साथ । अतीत और अनागत तो वर्तमान कालमें असत् हैं अतः उनके साथ सन्निकर्षकी सम्भावना ही नहीं है । अतः महेश्वर अतीत और अनागत पदार्थों के ज्ञाता कैसे हो सकते हैं ? इस तरह एक ओर तो महेश्वरको सर्वज्ञ मानना और दूसरी ओर उसके ज्ञानको सन्निकषज मानना स्पष्टतः विरोधी है। .
४३९. इसी तरह अन्य योगियोंके ज्ञान भी यदि सन्निकर्षज होंगे तो वे सर्वज्ञ नहीं हो सकेंगे।
$ ४४०. वे मानते हैं कि कार्यद्रव्य प्रथमक्षणमें उत्पन्न हो जाता है उसके बाद द्वितीय क्षणमें उसमें रूप उत्पन्न होता है। इसका कारण वे यह बताते हैं कि-रूपादि गुण निराधार नहीं रह सकते। प्रथम क्षणमें तो कार्यद्रव्य उत्पन्न ही नहीं है तब उस क्षणमें रूपादि गुणोंकी निराधार उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती। इस तरह रूपादिको निराधारताके भयसे गुणोंकी उत्पत्ति द्वितीय क्षणमें मानकर भी वे कार्य द्रव्यके नाश होनेपर द्वितीय क्षणमें रूपादिका नाश
१. वहीश्वर भ. १, २, प. १,२। २. -गो न भवेत् भ. १, २, प. १,२। ३.-नात् सर्वज्ञः भा. क. । ४. -वात्ते ( अस्मदादयः )ऽपि आ.। ५. प्रसज्जेयुः म. २। ६. -द्धमेवावबो-म. २ । ७. - नष्टे तद्रूपं भा.।
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