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________________ - का० ५८ ९ ४३५ ] जैनमतम् । ३९७ मित्युक्त्वा सामान्यविशेषसमवायानां सत्तायोगमन्तरेणापि सद्भावं भाषमाणानां कथं न व्याहतं वचो भवेत् । $ ४३१. ज्ञानं स्वात्मानं न वेत्ति स्वात्मनि क्रियाविरोधादित्यभिधायेश्वरज्ञानं स्वात्मनि क्रियाविरोधाभावेन स्वसंवेदितमिच्छतां कथं न स्ववचनविरोधः । प्रदीपोऽप्यात्मानमात्मनैव प्रकाशयन् स्वात्मनि क्रियाविरोधं व्यपाकरोति । ६ ४३२. परवञ्चनात्मकान्यपि छलजातिनिग्रहस्थानानि तत्त्वरूपतयोपदिशतोऽक्षपादवेंव्यावर्णनं तमसः प्रकाशात्मकताप्रख्यापनमिव कथं न व्याहन्यते । ६ ४३३. आकाशस्य निरवयवत्वं स्वीकृत्य तद्गुणः शब्दस्तदेकदेश एव श्रूयते न सर्वत्रेति सावयवतां ब्रुवाणस्य कथं न विरोधः । $ ४३४. सत्तायोगः सत्त्वं योगश्च सर्वैर्वस्तुभिः सांशतायामेव भवति सामान्यं च निरंशमेकमभ्युपगम्यते, ततः कथं न पूर्वापरतो व्याहतिः । ६ ४३५. समवायो नित्य एकस्वभावश्चेष्यते सर्वैः समवायिभिः संबन्धश्च नैयत्येन जाय और समवायको सत्तासम्बन्ध के बिना ही स्वरूप सत् मान लिया है। इस तरह सत्का लक्षण कुछ दूसरा ही है और पदार्थ किसी दूसरे प्रकारसे भी सत् माने जाते हैं यह तो स्पष्ट ही स्ववचन विरोध है । ९ ४३१. इन्होंने ज्ञानको अस्वसंवेदी माना है । वे कहते हैं कि - ज्ञान अपने स्वरूपको नहीं जानता क्योंकि स्वात्मामें क्रियाका विरोध है, कोई कितना ही कुशल नट क्यों न हो, वह अपने ही कन्धेपर चढ़कर नृत्य नहीं कर सकता, तेजसे तेज दुधारी तलवार भी अपने-आपको नहीं काट सकती । इस तरह ज्ञानको अस्वसंवेदी कहकर ईश्वरके ज्ञानको स्वसंवेदी मानना स्ववचन विरोध नहीं तो क्या है ? ईश्वरके ज्ञानको स्वसंवेदी मानते समय स्वात्मामें क्रियाका विरोध कहाँ गया ? दीपक अपनी हो लौसे अपने स्वरूपका भी प्रकाश करता है तथा परपदार्थों को भी प्रकाशित करता है, अतः स्वात्मामें क्रिया के विरोधकी बात कहना निरर्थक है । दीपकके दृष्टान्तसे ही वह खण्डित हो जाती है । $ ४३२. अक्षपाद ऋषि एक ओर तो दोषनिवृत्ति और तत्त्वज्ञानके द्वारा वैराग्य दृढ़ करनेका उपदेश देते हैं और दूसरी ओर शास्त्रार्थ में वादियों को ठगने के लिए उन्हें भुलावेमें डालने के लिए छल जाति और निग्रहस्थान - जैसे षड्यन्त्र के कूट उपायोंको तत्त्व मानते हैं। क्या यह उनका अन्धकारको ही प्रकाश कहने के समान स्ववचनविरोध नहीं है ? $ ४३३. आकाशको निरंश भी कहना तथा 'शब्द आकाशके एक देश में ही सुनाई देता है। सब देशोंमें नहीं' इस तरह उसके देशों - हिस्सों का वर्णन भी करना क्या स्ववचनविरोध नहीं है । ये लोग शब्दको आकाशका गुण मानते हैं और उसकी आकाशके अमुक देशों में ही उत्पत्ति स्वीकार करते हैं । $ ४३४. ये सत्ताके सम्बन्धको सत्व कहते हैं । एक सत्तासामान्यका सभी विभिन्न देशवर्ती सत् पदार्थोंसे युगपत् सम्बन्ध तो तब बन सकता है जब सामान्यको सांश - हिस्सोंवाला सावयव माना जाय । परन्तु सामान्यको निरंश और एक भी मानना तथा समस्त सत् पदार्थोंसे उसका युगपत् सम्बन्ध भी मानना दोनों बातें कैसे हो सकती हैं ? यह तो स्पष्ट ही पूर्वापर विरोध है । $ ४३५. इसी तरह समवायको नित्य तथा एक स्वभाववाला भी कहना और समस्त समवायियों में नियत सम्बन्ध करानेवाला भी मानना स्ववचन विरोध है । घट और रूपका समवाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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