________________
षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० ५८. ६ ४२७४२७. एवं निर्विकल्पकमध्यक्ष नीलादिकस्य वस्तुनः सामस्त्येन ग्रहणं कुर्वाणमपि नीलायंशे निर्णयमुत्पादयति न पुनर्नोलाद्यर्थगते क्षणक्षयेऽश इति सांशतामभिवधतः सौगतस्य पूर्वापरवचोविरोधः सुबोध एव ।
६४२८. तथा हेतोस्रूप्यं संशयस्य चोल्लेखद्वयात्मकतामभिवधानोऽपि स सांशं वस्तु यन्न मन्यते तदपि पूर्वापरविरुद्धम् ।
४२९. तथा परस्परानाश्लिष्टा एवाणवः प्रत्यासत्तिभाजः समुदिता घंटादिरूपतया प्रतिभासन्ते न पुनरन्योन्यमङ्गाङ्गिभावरूपेणारब्धस्कन्धकार्यास्ते इति हि बौद्धमतम् । तत्र चामो दोषाः। परस्परपरमाणूनामनाश्लिष्टत्वाद्घटस्यैकदेशे हस्तेन धार्यमाणे कृत्स्नस्य घटस्य धारणं न स्यात्, उत्क्षेपावक्षेपापकर्षाश्च तथैव न भवेयुः। धारणादीनि च घटस्यार्थक्रियालक्षणं सत्त्वमङ्गोकुर्वाणैः सौगतैरभ्युपगतान्येव तानि च तन्मतेऽनुपपन्नानि । ततो भवति पूर्वापरयोविरोधः।
$ ४३०. अथ नैयायिकवैशेषिकमतयोः पूर्वापरतो व्याहतत्वं दयते। सत्तायोगः सत्त्व.
६४२७. इसी तरह निर्विकल्प प्रत्यक्षको नीलादिवस्तुओंके समस्त धर्मोका ग्राहक मानकर भी उसे नीलांशमें विकल्प-निश्चयका उत्पादक कहना तथा उसी नीलपदार्थक क्षणक्षयांशमें निश्चयका उत्पादक न मानना ही वस्तुकी सांशताका स्पष्ट निरूपण करना है। जो निरंश सिद्धान्तका विरोधी है।
४२८. इसी तरह वस्तुको निरंश मानकर भी हेतुके तीन रूप मानना तथा संशयज्ञान में दो विरोधी आकारोंको स्वीकार करना बौद्धोंके परस्पर विरोधको समझने के लिए पर्याप्त है
४२९. बौद्धोंका यह सिद्धान्त है कि-घट आदि स्थूलपदार्थोंकी वास्तविक सत्ता नहीं है। यह तो परस्पर असम्बद्ध पर अत्यन्त निकट रखे हुए परमाणुओंका एक पुंज-समुदाय है। परमाणु परस्पर सापेक्ष होकर स्कन्ध नहीं बनते। यही परमाणुओंका ढेर हम लोगोंको घट-पट आदि स्थूल पदार्थोंके रूपमें प्रतिभासित होता है। ये परमाणु असम्बद्ध होकर भी एक दूसरेके इतने निकट हैं कि उनका स्वतन्त्र प्रतिभास न होकर स्थूल और स्थिर रूपसे प्रतिभास होता है। उनके इस परमाणुपुंजवादमें ये दूषण आते हैं-यटि घट नामका एक स्कन्ध नहीं है, तो घड़ेको मुखकी ओरसे उठनेपर पूरा घड़ा नहीं उठना चाहिए। उसके उतने ही
रमाण हाथमें आने चाहिए जिन्हें कि हाथसे पकड रखा है न कि पुरा घडा। इसी तरह घड़ेको ऊपर-नीचे या तिरछे फेंकनेपर परमाणुओंके ढेरको बिखरकर घड़ेकी सत्ता नष्ट कर देनी चाहिए। उसमें पानी तो हरगिज नहीं भरा जाना चाहिए। क्योंकि परमाणुओंके ढेरको न तो उठा सकते हैं न ऊपर-नीचे या तिरछे फेंक सकते हैं और न उसमें पानी आदि हो भर सकते हैं। इस तरह एक ओर तो परमाणुपुंजवाद मानना और दूसरी ओर घड़े आदिसे पानी भरने आदि अर्थक्रियाओंके होनेकी बात कहना परस्पर विरोधी बातें हैं। घड़ेकी सत्ता जलधारण आदि अर्थक्रियाके बिना हो ही नहीं सकती। इस तरह अर्थक्रियाको सत्ताका लक्षण कहना तथा परमाणुपुंजवाद मानना, जिसमें किसी भी अर्थक्रियाको सम्भावना नहीं है, साफ-साफ स्ववचन विरोध है । यह तो उस मौनीके समान है जो अपनेको 'मौनी' कहता भी जाता है और मौनव्रती होनेका ढोंग भी रचता है।
६४३०. अब नैयायिक और वैशेषिकमतमें पूर्वापर विरोध दिखाते हैं। इन्होंने सत् पदार्थका लक्षण तो किया है कि-'जिसमें सत्ताका समवाय हो वह सत्' पर सामान्य, विशेष
परमाण
- १. -परविरो-म, २। २. घटस्कन्धकार्यास्ते भ.। ३.-गतानि च तन्मते भ.। ४. दर्शयते
आ., क.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org