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________________ ३९५ -का० ५८.६४२६ ] जैनमतम् । विषयं व्याहरमाणस्य कथं न पूर्वापरव्याघातः, अकारणस्य प्रमाणविषयत्वानभ्युपगमात् । १४२४. तथा क्षणक्षयाभ्युपगमेऽन्वयव्यतिरेकयोभिन्नकालयोः प्रतिपत्तिर्न संभवति। ततः साध्यसाधनयोस्त्रिकालविषयं व्याप्तिग्रहणं मन्वानस्य कथं न पूर्वापरव्याहतिः। ६ ४२५. तथा क्षणक्षयमभिधाय। "इत एकनवतो* कल्पे शक्त्या में पुरुषो हतः। 'तत्कर्मणो विपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ॥१॥" इत्यत्र श्लोके जन्मान्तरविषये मेशब्दास्मिशब्दयोः प्रयोगं क्षणक्षयविरुद्धं ब्रुवाणस्य बुद्धस्य कथं न पूर्वापरविरोधः। ६४२६. तथा निरंशं सर्व वस्तु प्रारमोच्य हिंसाविरतिदानचित्तस्वसंवेदनं तु स्वगतं सद्व्यचेतनत्वस्वर्गप्रापणशक्त्यादिकं गृह्णदपि स्वगतस्य सद्व्यत्वादेरेकस्यांशस्य निर्णयमुत्पादयति न पुनः स्वगतस्यापि द्वितीयस्य स्वर्गप्रापणशक्त्यादेरंशस्येति सांशतां पश्चाद्वदतः सौगतस्य कथं पूर्वापरविरुद्धं वचो न स्यात् । त्रिकालवर्ती अर्थ कारण न होकर भी विषय हो रहे हैं । अतः 'जो ज्ञानका कारण नहीं वह ज्ञानका विषय नहीं' इस नियमका सर्वसंग्राही व्याप्ति ज्ञानसे भी विरोध होता है। १४२४. संसारके पदार्थोंको क्षणक्षयो माननेपर अन्वय और व्यतिरेकका ज्ञान नहीं हो सकेगा। जो ज्ञान पहले साधनका सद्भाव ग्रहण कर उसकी सत्तामें ही साध्यको सत्ताको तथा साध्यके अभावमें साधनके अभावको जाननेका इतना-दस-बीस क्षण लम्बा व्यापार कर सकता है उसी ज्ञानसे अन्वय-व्यतिरेक जाने जा सकते हैं। पर क्षणभंगवादमें किसी भी ज्ञानक्षणका इतना लम्बा व्यापार होना असम्भव है । अतः क्षणभंग मानकर अन्वय-व्यतिरेकके ग्रहणको असम्भव बना देना तथा सर्वसंग्राही अन्वय-व्यतिरेकमूलक व्याप्तिज्ञानसे व्यवहार भी चलाना क्या परस्पर विरोधी नहीं हैं। ६४२५. आत्माको क्षणभंगुर भी मानना और "आजसे एकानबे कल्प पहले मैंने भालेसे एक पुरुषको मारा था। हे भिक्षुओ, उसी हिंसा कर्मके फलस्वरूप आज मेरे पैरमें कांटा चुभा है।" यह एकानबे कल्पसे लेकर आज तक ठहरनेवाले आत्माका स्पष्ट कथन करना परस्पर विरोधी नहीं तो क्या है ? इससे एकानबेवां कल्प और आज इन दोनों कालों तक स्थायी 'मे और अस्मि' शब्दका वाच्य, जन्मान्तरोंमें अपनी सत्ता रखनेवाला आत्मा सिद्ध होता है जो क्षणभंगवादको समूल नष्ट कर देगा। यह वाक्य और किसीका नहीं है। स्वयं बुद्धने ही जन्मान्तरपरलोकको सत्ता सिद्ध करनेके लिए यह श्लोक कहा था। इसमें 'जो मैं भालेसे पुरुषको मारनेवाला था वही मैं आज काँटेसे छिद रहा हूँ' इस प्रत्यभिज्ञानसे आत्माका स्थायित्व साफ-साफ जाहिर हो रहा है। .$ ४२६. इसी तरह पहले वस्तुको सर्वथा निरंश मानकर पीछे उसका सांश रूपसे कथन करना भी स्ववचन विरोध है। वे कहते हैं कि अहिंसाक्षण या दानक्षण रूप चित्त अपने सत्ता, द्रव्यत्व, चेतनत्व, स्वर्ग-प्राप्त करानेकी शक्ति आदि अनेक अंशोंको जानकर भी सत्त्व, द्रव्यत्व और चेतनत्व आदि अंशोंका तो निश्चय कर पाता है पर अपने ही स्वर्गप्रापण शक्ति आदि अंशोंका निश्चय नहीं कर सकता। इस तरह एक ओर वस्तुकी निरंशताकी घोषणा करना और दूसरी ओर वस्तुके विभिन्न अंशोंका निरूपण भी करना स्पष्ट ही वदतोव्याघात-स्ववचन विरोध है। १. -स्य विषय-। २. -नवते कल्पे भ. १, २, प. १, २, क. । उद्धृतोऽयम्-स्या. मं. पृ. २४७ । ३. तेन कर्मवि-म. १,२, प.१,२।४.-कं तदपि भ.२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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