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१६ षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० १. १२० वावस्थाविशेषा घटन्ते, प्रतिनियतकालविभागत एव तेषामुपलभ्यमानत्वात् । अन्यथा सर्वमव्यवस्थया भवेत् । न चैतदृष्टमिष्टं वा। अपि च, मुद्गपक्तिरपिन कालमन्तरेण लोके भवन्तो दृश्यते, किंतु कालक्रमेण । अन्यथा स्थालीन्धनाविसामग्रीसंपर्कसंभवे प्रथमसमयेऽपि तस्या भावो भवेत्, न च भवति, तस्माद्यत्कृतकं तत्सवं कालकृतमिति । २०. तथा चोक्तम्
"न कालव्यतिरेकेण गर्भबोलयुवादिकम् । यत्किचिज्ज्ञायते लोके तदसी कारणं किल ।।१।। किंच कालादृते नैव मुद्गपक्तिरपीक्ष्यते । स्थाल्यादिसंनिधानेऽपि ततः कालादसो मता ॥२।। कालाभावे च गर्भादि सर्व स्यादव्यवस्थया। परेष्टहेतुसद्भावमात्रादेव तदुद्भवात् ॥३॥"
[शास्त्रवा. श्लो. १६५-६८] "काल: पचति भूतानि काल: 'संहरते प्रजाः। कालः सुप्तेषु जागति कालो हि दुरतिक्रमः ।।४।।
[महाभा., हारीतसं.] जवानी तथा मुंह आदिमें झुरियाँ तथा बालोंमें सफेदी लानेवाली वृद्धावस्था आदि अवस्थाओंका होना असम्भव हो जायेगा; क्योंकि ये सब कालके प्रतिनियत विभागसे ही सम्बन्ध रखती हैं। काल न हो तो यह सब अव्यवस्थित हो जायेगा। परन्तु इनकी अव्यवस्था न तो अनुभव में ही आती है और न इष्ट ही है। मूंगकी दालका परिपाक भी कालक्रमसे ही होता है। यदि कालके बिना ही परिपाक हो जाय तो बटलोई. इंधन आदि सामग्रीके मिलते ही प्रथम क्षणमें ही दाल पक जानी चाहिए। पर ऐसा तो नहीं देखा जाता अर्थात् मूंगको दालको पकानेके लिए १५-२० मिनिटका समय तो अपेक्षित होता ही है। इसलिए यह नियम है कि जो-जो कृतक अर्थात् कार्य हैं वे सब कालकृत ही हैं। जिन वस्तुओंकी उत्पत्तिमें दूसरे कारणके व्यापारको अपेक्षा होती है उन्हें कृतक कहते हैं।
$२०. कहा भी है-"इस संसारमें गर्भाधान बाल्यकाल जवानी आदि जो कुछ भी उत्पन्न होता है वह सब काल की सहायतासे हो उत्पन्न होता है, कालके बिना नहीं। क्योंकि काल एक समर्थे कारण है ।।१।। बटलोई इंधन आदि पाकको सामग्री मिल जानेपर भी जबतक उसमें काल अपनी सहायता नहीं करता तबतक मूंगकी दालका परिपाक नहीं देखा जाता अतः यह मानना ही होगा कि मूंगकी दालका परिपाक कालने ही किया है ॥२॥
यदि दूसरोंके द्वारा माने गये हेतुके सद्भाव मात्रसे ही कार्य हो और कालको कारण न माना जाय तो गर्भाधान आदिकी कोई व्यवस्था ही नहीं रहेगी। अर्थात् यदि ऋतुकालकी कोई अपेक्षा नहीं है तो मात्र स्त्री-पुरुषके संयोगसे हो गर्भाधान हो जाना चाहिए ॥३॥"
"काल पृथिवी आदि भूतोंके परिणमनमें सहायक होता है, काल ही प्रजाका संहार करता है अर्थात् उन्हें एक अवस्थासे दूसरी अवस्थामें ले जाता है। सदा जाग्रत् काल ही सुषुप्तिदशामें भी प्राणियोंकी रक्षा करता है । अतएव यह काल दुरतिक्रम है अर्थात् उसका निराकरण अशक्य है।"
१. -बालशुभादि-क., प. १, २, भ. १, २ । २. संहरति प. १, २, भ. १ ।
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