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________________ - का० ५८. ६ ४२०] जैनमतम्। ३९३ भावः-यथा अपरदर्शनसंबन्धिषु मूलशास्त्रेष्वपि कि पुनः पाश्चात्यविप्रलम्भकग्रथितग्रन्थकथासु प्रथमपश्चादभिहितयोमिथोविरोधोऽस्ति, तथा जैनदर्शने कापि केवलिप्रणीतद्वादशाङ्गेषु पारम्पर्यग्रन्थेषु च सुसंबद्धार्थत्वात्सूक्ष्मेक्षिकया निरीक्षितोऽपि स नास्ति । यत्तु परदर्शनेष्वपि क्वचन सहृदयहृदयंगमानि वचनानि कानिचिदाकर्णयामः तान्यपि जिनोक्तसूक्तसुधासिन्धुसमुद्गतान्येव संगृह्य मुधा स्वात्मानं बहु मन्वते । यच्छीसिद्धसेनपादाः "सुनिश्चितं नः परतन्त्रयुक्तिषु स्फुरन्ति याः काश्चन सूक्तिसंपदः । तवैव ताः पूर्वमहार्णवोत्थिता जगत्प्रमाणं जिनवाक्यविपुषः ॥१॥" [द्वात्रिंश.] इति । ६ ४२०. अत्र परे प्राहुः-अहो आर्हता, अर्हदभिहिततत्त्वानुरागिभिर्युष्माभिरिदमसंबद्धमेवाविर्भावयांबभूवे यदुत युष्मदर्शनेष्वपि पूर्वापरयोविरोधोऽस्तीति । न ह्यस्मन्मते सूक्ष्मेक्षणैरीक्ष. माणोऽपि विरोधलेशोऽपि वचन निरीक्ष्यते, अमृतकरकरनिकरेष्विव कालिमेति चेत् । उच्यते। भोः, स्वमतपक्षपातं परिहृत्य माध्यस्थ्यमवलम्बमाननिरभिमानः प्रतिभावयद्भिर्यद्यवधानं विदधानिशम्यते, तदा वयं भवतां सर्व दर्शयामः।। उस तरह जैन दर्शनमें केवली भगवान्के द्वारा प्रणीत द्वादशांगमें तथा इनके आधारसे बने हुए उत्तरकालीन ग्रन्थोंमें कहींपर भी पूर्वापर विरोध नहीं देखा जाता। सूक्ष्मदृष्टिसे अच्छी तरह विचारनेपर जैनदर्शन आगे-पीछे सर्वत्र निर्विरोध प्रतीत होता है, उसका कथन सर्वत्र सम्बद्ध है। अन्यमतोंके मूलग्रन्थ ही जब इस तरह पूर्वापर विरोधसे भरे पड़े हैं तब उत्तरकालीन विप्रलम्भक लोगों द्वारा गूंथे गये ग्रन्थोंकी तो बात ही क्या कहना ? अन्य मतोंमें भी जो कुछ सहृदय विद्वत्समाजके चित्तमें फबनेवाले सुन्दर हृदयहारी वचन सुने जाते हैं, वे सब वस्तुतः जैनवचनरूपी समुद्रसे ही निकाल-निकालकर अपने-अपने शास्त्रोंमें सजा लिये गये हैं। अतः परवादी उन मंगनीमें आये हुए पराये सुन्दर वचनोंके बलपर अपने शास्त्रोंको व्यर्थ ही बड़े महत्त्वशाली कहनेका ढोंग करते हैं । वस्तुतः रत्नोंकी उत्पत्ति तो रत्नाकर-समुद्र में ही होती है जौहरियोंकी दुकानपर तो वे मांगकर या उठाकर ही लाये जाते हैं। श्री सिद्धसेनदिवाकरने स्पष्ट कहा है कि"हे भगवन्, यह बात सुनिश्चित है कि-परशास्त्रोंमें जो कुछ भी थोड़े-से सुन्दर सूक्त-सुचचन या सुयुक्तियाँ चमक रही हैं वे सब मूलतः तुम्हारी ही हैं। वे जिनवचनरूपी समुद्रकी उचटी हुई बूंदें हैं । अतः जैनवाक्य ही सूक्तियों तथा सुयुक्तियोंके समुद्र हैं और प्रमाण रूप हैं। संसार इस बातको अच्छी तरह जानता है कि जलबिन्दुओंका सबसे बड़ा भण्डार समुद्र ही होता है।" ४२०. परवादी-ऐ जैनियो, जिनशासनके अनुरागसे आप लोग यह मिथ्या और असम्बद्ध ही बकते रहते हो कि-हम लोगोंके मतोंमें आगे-पीछे असम्बद्धता है उनमें पूर्वापर विरोध है। किसीके मतका इस तरह मिथ्या अपवाद करना आपको शोभा नहीं देता। हमारे मत तो पूर्णचन्द्रकी धवल चांदनीकी तरह दूधके धुले हुए स्वच्छ तथा निर्दोष हैं, उनमें विरोधको कालिमा जरा भी नहीं है। आप कितनी ही बारीकीसे खोज क्यों न करें, पर आपको कहीं भी विरोध या असम्बद्धताकी गन्ध तक नहीं आ सकती। अतः इस पूर्वापर विरोधकी व्यर्थ बकवादको बन्द कर देना चाहिए। जैन-आप घबड़ाइए नहीं, यदि आप लोग अपने मतका मिथ्या पक्षपात छोड़कर मध्यस्थ भावसे निरभिमान होकर अपनी बुद्धि तथा प्रतिभाके कान खड़े करके सावधानीसे सुनना चाहते हैं तो हम एक-एक करके समस्त विरोधोंको गिनाते हैं। १. यथा पर आ. । २. ग्रन्थकंथासु भ. १, प. १, २, -प्रन्थसंकथासु म. २। ३. च संब-भ. २ । ४.-क्षणैरीक्षणैरी -भ.। ५.-क्ष्यमा- म. २, प. १,२। ६.-मान/प्रधानः प्रतिभाद्यवधानं आ., क.,-मानैः प्रतिभाद्यवधानं भ.२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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