________________
३९२ षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० ५८.६४१८चावश्यमङ्गीकर्तव्यं, अन्यथा सकलानुमानेषु साध्यसाधनानामुक्तन्यायत उच्छेद एव भवेत् । तस्माद्धो एकान्तवादिन्, निजपक्षाभिमानत्यागेनाविषादिनोऽक्षिणी निमील्य बुद्धिदृशमुन्मील्य मध्यस्थवृत्त्या युक्त्यानुसारैकप्रवृत्त्या तत्तत्त्वं जिज्ञासन्तो भवन्तोऽनेकान्तं कान्तं विचारयन्तु, प्रमाणैकमूलसकलयुक्तियुक्तं प्रागुक्तनिखिलदोषविप्रमुक्तम् तत्तत्त्वं चाधिगच्छन्तु । इति परहेतुतमोभास्करनामकं वावस्थलम् । ततः सिद्धं सर्वदर्शनसंमतमनेकान्तमतम् ॥५७॥ $ ४१८. अथ जैनमतं संक्षेपयन्नाह
जैनदर्शनसंक्षेप इत्येष गदितोऽनघः ।
पूर्वापरपराघातो यत्र क्वापि न विद्यते ॥५८॥ ६ ४१९. व्याख्या-जैनदर्शनस्य संक्षेपो विस्तरस्यागाधत्वेन वक्तुमशक्यत्वादुपयोगसारः समास इत्यमुनोक्तप्रकारेणैव-प्रत्यक्षो गदितो-अभिहितोऽनघो-निर्दूषणः सर्ववक्तव्यस्य सर्वज्ञमूलत्वे दोषकालुष्यानवकाशात् । यत्र-जैनदर्शने क्वापि क्वचिदपि जीवाजीवादिरूपविचारणाविषयसूक्ष्ममतिचायामपि पूर्वापरयोः-पूर्वपश्चादभिहितयोः पराघातः-परस्परव्याहतत्वं न विद्यते, अयं सकता है। इस तरह जब अनुभय पदार्थको सत्ता ही नहीं तब वह हेतुका व्यापक होकर साध्य नहीं बन सकता। इस तरह पक्षमें सामान्यविशेषात्मक वस्तुकी सिद्धिके लिए सामान्यविशेषात्मक ही हेतुका प्रयोग करना युक्ति तथा अनुभवसे सिद्ध है । इस सामान्य विशेषात्मक पक्षको एकान्त पक्ष में दिये जानेवाले दषणों की हवा भी नहीं लग सकती। अतः हेतका स्वरूप अनेकान्तात्मक ही मानना चाहिए। उसे एकान्त रूप माननेसे समस्त साध्य-साधनोंका लोप होकर अनुमान मात्रका उच्छेद हो जायेगा। इसलिए हे एकान्तवादियो, यदि आप लोग अपने पक्षका मिथ्याभिमान छोड़कर शान्तचित्तसे योगीकी तरह इन चंचल आँखोंको मूंदकर, ज्ञान नेत्रोंको खोलकर, तटस्थवृत्तिसे युक्तियोंका आलोडन कर, तत्त्वजिज्ञासापूर्वक अनेकान्तका थोड़ी देर भी विचार करेंगे तो आप पहले कहे गये समस्त दूषणोंसे रहित प्रमाण प्रसिद्ध अनेकान्ततत्त्वको सहज ही पा सकेंगे। इस तरह यह परहेतुतमोभास्कर नामका वादस्थल पूर्ण हुआ। ऊपरके विवेचनसे अनेकान्ततत्त्व सर्वदर्शनसम्मत सिद्ध हो जाता है ।।५७||
६४१८. अब जैनमतका उपसंहार करते हैं
इस तरह सर्वथा निर्दोष जैनदर्शनका संक्षेपसे कथन किया है। इनकी मान्यताओंमें कहीं भी पूर्वापर विरोध नहीं है ॥५८॥
४१९. जैनदर्शन अगाध है, उसका विस्तारसे वर्णन करना तो समुद्रको तैरनेके समान असम्भव है । अतः सारभूत उपयोगी पदार्थोंका इस प्रकरणमें कथन किया गया है। जैनदर्शनके मूलवक्ता सर्वज्ञ हैं, अतः उसमें दोषको कालिमा हो ही नहीं सकती। यह वर्णन भी उन्हींके वचनोंके अनुसार है अतः इसमें किसी भी तरहके दोषकी सम्भावना नहीं है। इस जैनदर्शनकी जीव-अजीवादिविषयक गहनतम सूक्ष्म चर्चाओंमें कहींपर भी पूर्वापर विरोध नहीं देखा जाता। पहले कुछ और कहा जाय और बादमें कुछ और ही तब पूर्वापर विरोध होता है। परन्तु जैनदर्शन में पहले और पीछे सर्वत्र प्रमाणसिद्ध अबाधित वस्तुनिरूपण है। तात्पर्य यह कि जिस तरह अन्यमतोंके मूलशास्त्रोंमें ही पहले कुछ कहा तथा बादमें कुछ निरूपण होनेसे पूर्वापर विरोध है
१.-प्यविषादि-भ. १, प. १,२। २. -कान्तं विचारयन्त प्र-आ.। -नेकान्तं विचारयन्तु प्रक. । ३. संक्षिपन्नाह म. १,२, प. १,२। ४. विषये सूक्ष्ममपि पूर्वापरयोः पराघातः म. २ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org