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३८६ षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० ५७.६४०३४०३. नापि विशेषरूपः, तस्यासाधारणत्वेन गमकत्वायोगात्, साधारणत्व एवान्वयोपपत्तेः । नापि सामान्यविशेषोभयं परस्पराननुविद्धं हेतुः उभयदोषप्रसङ्गात् । नाप्यनुभयं, अन्योन्यव्यवच्छेदरूपाणामेकाभावे द्वितीयविधानावनुभयस्यासत्त्वेन हेतुत्वायोगात् । बुद्धिप्रकल्पितं च सामान्यमवस्तुरूपत्वात्साध्येनाप्रतिबद्धत्वादसिद्धत्वाच्च न हेतुः। तदेवं सामान्यादीनामसिद्धत्वे तल्लक्षणाः सर्वेऽपि हेतवोऽसिद्धा एव ।
१४०४. तथा प्रतिबन्धविकलाः समस्ता अपि परोपन्यस्ता हेतवोऽनैकान्तिका अवगन्तव्याः। न चैकान्तसामान्ययोविशेषयोर्वा साध्यसाधनयोः प्रतिबन्ध उपपद्यते। तथाहि-सामान्ययोरेकान्तेन नित्ययोः परस्परमनुपकार्योपकारकभूतयोः कः प्रतिबन्धः, मिथः कार्यकारणादिभावेनोपकार्योपकारत्वे त्वनित्यत्वापत्तेः। विशेषयोस्तु नियतदेशकालयोः प्रतिबन्धग्रहेऽपि तत्रैव तयोर्ध्वसात्साध्यधर्मिण्यगृहीतप्रतिबन्ध एवान्यो विशेषो हेतुत्वेनोपादीयमानः कथं नानैकान्तिकः। क्योंकि सामान्यके अंश ही नहीं हैं, वह तो सर्वथा निरंश है। इस तरह हेतु सर्वथा सामान्य रूप तो नहीं हो सकता।
६४०३. हेतुको विशेष रूप तो कह ही नहीं सकते; क्योंकि विशेष तो असाधारण-परस्पर विलक्षण होते हैं उनमें परस्पर अन्वय नहीं पाया जाता अतः वे साध्यका अनुमान नहीं करा सकेंगे। अन्वय तो साधारण-सदृशवस्तुओंमें ही हो सकता है। परस्पर निरपेक्ष सामान्य और विशेषको हेतु माननेमें तो सामान्य और विशेष दोनों ही पक्षोंमें आनेवाले दूषणोंका प्रसंग होगा। अनुभय रूप तो संसारमें कोई पदार्थ ही नहीं हो सकता। सामान्य और विशेष एक दूसरेका निषेध करके रहते हैं। जो सामान्य होगा वह विशेषका व्यवच्छेद करेगा तथा जो विशेष होगा वह सामान्यका । अतः यदि उसे सामान्यरूप नहीं मानते तो वह विशेष रूप अवश्य ही होगा और यदि वह विशेषरूप नहीं है तो सामान्यरूप अवश्य होगा। एकका निषेध करनेसे दूसरेका विधान अवश्यम्भावी है, दोनोंका एक साथ निषेध नहीं किया जा सकता। बौद्धोंके द्वारा माना गया बुद्धिकल्पित अन्यापोहरूप सामान्य तो अवस्तु है, उसका साध्यके साथ अविनाभावी सम्बन्ध भी नहीं है । इस तरह वह सर्वथा असिद्ध होनेके कारण हेतु बनकर साध्य साधक नहीं हो सकता। इस तरह सामान्य आदिके असिद्ध होनेके कारण सामान्य आदि रूप हेतु भी असिद्ध ही हैं। -
१४०४. प्रतिवादियोंके द्वारा प्रयुक्त हेतुओंका अपने साध्यके साथ अविनाभाव सम्बन्ध । अतः वे सभी हेत अविनाभावशन्य होनेसे अनेकान्तिक हैं। परवादी साध्य और हेतको या तो सामान्यरूप मान सकते हैं या फिर विशेष रूप, सामान्यविशेषात्मक तो वे मान ही नहीं सकते। अतः सर्वथा सामान्य या विशेषरूप हेतु और साध्यमें अविनाभावसम्बन्ध ही नहीं बन सकता। यदि हेतु और साध्य सामान्य रूप हैं, तो सामान्य नित्य होनेके कारण एक दूसरेकी अपेक्षा नहीं रखते और न वे अविकारी नित्य होनेके कारण एक दूसरेका उपकार ही कर सकते हैं । अतः परस्पर उपकार शून्य साध्य सामान्य और हेतु सामान्य में सम्बन्ध ही नहीं हो सकता। जो पदार्थ एक दूसरेके कार्य या कारण होकर उपकार करते हैं उन्हींमें सम्बन्ध होता है। परन्तु नित्य सामान्य तो न किसीके कारण ही हो सकते हैं और न कार्य ही। ज्यों ही उनमें कार्यकारणभाव आया त्यों ही उनकी नित्यरूपता समाप्त हो जायेगी और वे अनित्य हो जायेंगे। साध्यविशेष और साधनविशेष तो अपने नियत देश तथा नियत कालमें रहनेवाले हैं अतः उनमें सम्बन्ध ग्रहण कर भी लिया जाये तो भी जब वे दूसरे क्षणमें नष्ट ही हो जानेवाले हैं तो उनमें सम्बन्धका ग्रहण करना और न करना बराबर ही है; क्योंकि जिनमें सम्बन्ध ग्रहण किया था वे तो नष्ट ही हो गये हैं, इस समय तो पक्ष एक नया ही हेतु विशेष दिखाई दे रहा है। जब इस नये हेतु विशेषका साध्यके साथ सम्बन्ध ही ग्रहण नहीं किया तब वह साध्यका अनुमान कैसे करा सकता
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