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-का० ५७.६ ४०२] जैनमतम्।
३८५ भिरिव शाबलेयादिभिरपि तदभिव्यज्येत । न च कांद्यानामेव तदभिव्यक्ती सामयं न शाबलेयादीनामिति वाच्यं, यतः किरूपं तत्कांद्यानां सामर्थ्यम् । साधारणरूपत्वमिति चेत्, न; स्वतश्चेत्साधारणरूपा व्यक्तयः, तदा स्वत एव ता अश्वोऽश्व इत्यनुवृत्तं प्रत्ययं जनयिष्यन्तीति कि तद्भिन्नसामान्यपरिकल्पनया। यदि च स्वतोऽसाधारणरूपा व्यक्तयः, तदापरसामान्ययोगादपि न साधारणा भवेयुः, स्वतोऽसाधारणरूपत्वात्, इति व्यक्तिभिन्नस्य सामान्यस्याभावादसिद्धस्तल्लक्षणो हेतुः। कथं ततः साध्यसिद्धिर्भवेत्।
६४०२. अथ व्यक्त्यभिन्नं सामान्यं हेतुः, तदप्ययुक्तं, व्यक्त्यभिन्नस्य व्यक्तिस्वरूपवद्वयक्त्यन्तराननुगमात्सामान्यरूपतानुपपत्तेर्व्यक्त्यभिन्नत्वस्य सामान्यरूपतायाश्च मिथोविरोधात् । अथ भिन्नाभिन्नमिति चेत्, न, विरोधात् । अथ केनाप्यंशेन भिन्नं केनाप्यभिन्नमिति । तदपि न युक्तं, सामान्यस्य निरंशत्वात् । तन्न एकान्तसामान्यरूपो हेतुः साकल्येन सिद्धः। आदि अपनी व्यक्तियोंमें ही रहता है, तो जिस समय घुड़सालमें कोई नया घोड़ा उत्पन्न होता है उस समय उसमें अश्वत्वसामान्यका सम्बन्ध नहीं होना चाहिए, क्योंकि उस घुड़सालके उस खाली भागमें तो अश्वत्व रहता ही नहीं था जिससे वह वहींका वहीं नवजात घोड़ेसे चिपट जाता। सामान्य निराश्रय तो रहता हो नहीं है। सामान्य निष्क्रिय है अतः अश्वत्व दूसरे घोडेसे निकलकर इस नये घोड़ेमें आ भी नहीं सकता। तात्पर्य यह कि नवजात घोड़ेमें अश्वत्वका सम्बन्ध हो ही नहीं सकेगा। यदि अश्वत्वको समस्त जगत्में व्याप्त माना जाय, तो सफेद घोड़े आदिकी तरह खण्डी मुण्डी गायोंमें भी अश्वत्वका प्रतिभास होना चाहिए, क्योंकि अश्वत्व सामान्य तो सर्वगत है अतः घोड़ोंकी तरह गाय आदिमें रहता ही है । 'घोड़ोंमें ही अश्वत्वको प्रकट करनेकी सामर्थ्य है गौओंमें नहीं है' यह नियम करना ही कठिन है। घोड़ों में ही अश्वत्वको प्रकट करनेकी ऐसी कौन-सी विशेषता है जो गाय आदिमें नहीं पायी जाती हो? 'घोड़ोंमें परस्पर समानता है अतः वे ही अश्वत्वको प्रकट कर सकते हैं न कि घोड़ोंसे अत्यन्त विलक्षण गाय आदि' यह दलील भी अत्यन्त लचर है, क्योंकि यदि समस्त घोड़े स्वभावसे ही सदृश हैं परस्परमें अत्यन्त समान हैं तो इसी सदृशतासे ही 'अश्वः अश्वः' ऐसा अनुगताकार ज्ञान हो जायेगा, तब 'अश्वः अश्वः' इस अनुगताकार ज्ञानके लिए एक अश्वत्व नामके सामान्यकी कल्पना करना निरर्थक ही है। यदि समस्त घोड़े स्वभावसे असाधारण-विलक्षण हैं एक दूसरेके समान नहीं हैं। तो अश्वत्व नामके सामान्यमें भी यह शक्ति नहीं है कि वह उनमें 'अश्वः अश्वः' इस साधारण सदृश प्रत्ययको उत्पन्न कर सके । जो स्वतः विलक्षण हैं उनमें दूसरा पदार्थ समानता या सदृशता कैसे ला सकता है। इस तरह व्यक्तियोंसे सर्वथा भिन्न सामान्यकी तो जब सत्ता ही नहीं सिद्ध होती तब उसे हेतु बनाकर उसे साध्यकी सिद्धि करना आकाशके फूलको माला बनाकर उसको महकमें आनन्द लेनेके समान कल्पनाको ही वस्तु है।
४०२. यदि सामान्य व्यक्तियोंसे अभिन्न है, तो वह व्यक्ति स्वरूप ही हुआ, अतः जिस तरह एक व्यक्तिका दूसरी व्यक्तिमें अन्वय नहीं पाया जाता उसी तरह सामान्यका भी दूसरी व्यक्तिमें अन्वय नहीं होगा। जब वह दूसरी व्यक्तिमें अनुगत ही नहीं है तब उसे सामान्य ही कैसे कह सकते हैं ? सामान्य तो अनेकानुगत होता है। 'व्यक्तिसे अभिन्न भी होना तथा सामान्य भी होना' ये तो परस्पर विरोधी बातें हैं । भिन्नाभिन्न पक्षमें तो आप स्वयं विरोध कहते थे। तथा एक सामान्य भिन्न भी हो और अभिन्न भी यह सचमुच विरोधी है ही। सामान्यको किसी अंशसे भिन्न तथा किसी अंशसे अभिन्न माननेकी बात तो कही ही नहीं जा सकती;
१.-व्यज्यते आ.। २. -नासामान्यं भ. १, प. १,३।
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