SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 410
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८४ . षड्दर्शनसमुच्चये [का० ५७.६३९९. $ ३९९. किं च, स्वाश्रयेन्द्रियसंयोगात्प्राक स्वज्ञानमजनयत्सामान्यं पश्चादपि न तज्जनयेत्, अविचलितरूपत्वात् परैरनाधेयातिशयत्वाच्च, विचलितत्वे आधेयातिशयत्वे.च क्षणिकतापत्तिः। - $ ४००. अन्यच्च, तत्सामान्य व्यक्तिभ्यो भिन्नमभिन्नं, भिन्नाभिन्नं वा हेतुर्भवेत् । न तावद्भिन्नम्; व्यक्तिभ्यः पृथगनुपलम्भात् । ४०१. समवायेन व्यक्तिभिः सह सामान्यस्य संबन्धितत्वात् पृथगनुपलम्भ इति चेत्न; समवायस्येहबुद्धिहेतुत्वं गीयते, इहेदमिति बुद्धिश्च भेदग्रहणमन्तरेण न भवेत। किच, अतोऽ. श्वत्वादिसामान्य स्वाश्रयसर्वगतं वा, सर्वसर्वगतं वेष्यते। यदि स्वाश्रयसर्वगतम; तदा कर्कादि. व्यक्तिशून्ये देशे प्रथमतरमुपजायमानाया व्यक्तेरश्वत्वादिसामान्येन योगो न भवति, व्यक्तिशून्ये देशे सामान्यस्यानवस्थानाद्वयक्त्यन्तरादनागमनाच्च । अथ सर्वसर्वगतं तत्स्वीक्रियते; तदा कर्कादिरूप, सो यह ज्ञात होकर लिंग बनेगा या अज्ञात रहकर ही ? अज्ञात तो लिंग हो ही नहीं सकता; अन्यथा जिस व्यक्तिने धूमादि लिंगोंको नहीं जाना है उन्हें भी अग्नि आदिका अनुमान होना चाहिए, तथा जिस किसी व्यक्तिको जिस किसी लिंगसे जिस किसी भी साध्धका ज्ञान हो जाना चाहिए । यदि वह सामान्य रूप लिंग ज्ञात है, तो उसका ज्ञान प्रत्यक्षसे होगा या अनुमानसे ? प्रत्यक्ष तो इन्द्रियोंसे सम्बन्ध रखनेवाले स्थूल पदार्थों में ही प्रवृत्ति करता है, अतः उससे तो सर्वव्यापी सामान्यका परिज्ञान हो ही नहीं सकता। अनुमानसे भी उसका ज्ञान सम्भव नहीं है। क्योंकि यह अनुमान भी लिंगग्रहणपूर्वक होगा. लिंग विशेषरूप नहीं होकर सामान्यरूप होगा, इस सामान्यका ज्ञान प्रत्यक्षसे होगा या अनुमानसे इस तरह वही प्रश्न बराबर चालू रहेगा। इस तरह हजारों अनुमानोंको कल्पना करके भी हजारों वर्षों में भी एक साध्यका ज्ञान नहीं हो सकेगा। सामान्य अपनी समस्त व्यक्तियोंमें रहता है। यदि इस सर्वव्यापी सामान्यका प्रत्यक्ष या अनुमान किसी भी प्रमाणसे निश्चय होता है तो समस्त व्यक्तिरूप आधारमें रहनेवाले सामान्यका निश्चय होनेसे आधारभूत समस्त व्यक्तियोंका भी निश्चय हो ही जायेगा। इस तरह समस्त आधारभूत व्यक्तियोंका निश्चय होनेसे सभी प्राणी सहज हो सर्वज्ञ हो जायेंगे। $३९९. सामान्य नित्य और एक रूप माना जाता है। अतः यदि वह अपनी आधारभूत व्यक्तिसे इन्द्रिय सम्बन्ध न होने तक ज्ञान उत्पन्न नहीं करता है तो वह बादमें भी ज्ञानोत्पादक हो सकेगा: क्योंकि उसका स्वरूप अविचलित-सदा स्थायी है, उसमें किसी दूसरे पदार्थसे कोई नया अतिशय या सामर्थ्य उत्पन्न नहीं हो सकता। यदि उसका स्वरूप विचलित-परिवर्तनशील माना जाय और उसमें किसी सहकारीसे किसी नयी शक्तिके उत्पन्न होनेकी सम्भावना हो, तो वह नित्य नहीं रह सकेगा। क्षणिक हो जायेगा। ४००. वह सामान्य रूप हेतु व्यक्तियोंसे भिन्न है या अभिन्न, अथवा कथंचिद् भिन्नाभिन्न ? भिन्न तो नहीं कह सकते, क्योंकि विशेष व्यक्तियोंसे पृथक् सत्ता रखनेवाले सामान्य की उपलब्धि नहीं होती। ४०१. नैयायिक-यद्यपि सामान्य व्यक्तियोंसे भिन्न है, परन्तु उसका व्यक्तियोंसे नित्य समवाय रहने के कारण व्यक्तियोंसे भिन्न स्वतन्त्र रूपसे उपलब्धि नहीं होती। जैन-समवाय 'इहेदम्-इसमें यह है' इस बुद्धिका कारण होता है। जब तक सामान्य और विशेषका स्वतन्त्र भावसे ज्ञान नहीं होगा तब तक इहेदं बुद्धि उत्पन्न ही नहीं हो सकती। इह-विशेषमें इदं-सामान्य है' यह बुद्धि स्पष्ट हो भेदको ग्रहण करती है। अच्छा, यह बताइए कि इस इहेदं बुद्धिसे अश्वत्व आदि सामान्यकी वृत्ति-रहना समस्त अश्व रूप स्वाश्रयोंमें सिद्ध की जायेगो, या सर्वसर्वगत-संसारमें सर्वत्र ? यदि अश्वत्व सामान्य कर्क-सफेद घोड़ा पीला घोड़ा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy