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________________ - का० ५७. ६ ३९८ ] जैनमतम् । ३८३ ३९७. तथासिद्धतापि सर्वसाधनधर्माणामुन्नेया, यतो हेतुः सामान्यं वा भवेत्, विशेषो वा, तदुभयं वा अनुभयं वा। न तावत्सामान्यं हेतुः, तद्धि सकलव्यापि सकलस्वाश्रयव्यापि वा हेतुत्वेनोपादीयमानं प्रत्यक्षसिद्धं वा स्यात्, तदनुमानसिद्धं वा। न तावत्प्रत्यक्षसिद्धम्; प्रत्यक्ष पक्षानुसारितया प्रवर्तते। अक्षं च नियतदेशादिनैव संनिकृष्यते । अतोऽक्षानुसारि ज्ञानं नियतदेशादावेव प्रवर्तितुमुत्सहते, न सकलकालदेशव्यापिनि।। ६३९८. अथ नियतदेशस्वरूपाव्यतिरेकात्तन्निश्चये तस्यापि निश्चय इति चेत्, न; नियतदेशस्वरूपाव्यतिरेके नियतदेशतैव स्यात्, न व्यापिता, तन्न व्यापिसामान्यरूपो हेतुः प्रत्यक्षसिद्धः। अनुमानसिद्धतायामनवस्थाराक्षसी दुनिवारा । अनुमानेन हि लिङ्गग्रहणपूर्वकमेव प्रवर्तमानेन सामान्यं साध्यते लिङ्गं च न विशेषरूपमिष्यते, अननुगमात् । सामान्यरूपं तु लिङ्गमवगतं वानवगतं वा भवेत् । न तावदनवगतं, अनिष्टत्वादतिप्रसङ्गाच्च। अवगतं चेत्, तदा तस्यावगमः प्रत्यक्षेणानुमानेन वा । न प्रत्यक्षेण, संनिकृष्टग्राहित्वात्तस्य । नाप्यनुमानेन, तस्याप्यनुमानमन्तरेण लिङ्गग्रहणे पुनस्तदेवावर्तते । तथा चानुमानानामानन्त्यायुगसहस्ररप्येकलिङ्गिग्रहणं न भवेत् । अपि च, अशेषव्यक्त्याधेयस्वरूपं सामान्यं प्रत्यक्षानुमानाम्यां निश्चीयमानं स्वाधारनिश्चयमुत्पादयेत् । स्वाधारनिश्चयोऽपि निजाधारनिश्चयमिति सकलो जनः सर्वज्ञः प्रसज्यते। समाधान-यदि विपक्षासत्त्व वास्तविक रूप न हो, तो हेतुमें त्रिरूपता या पंचरूपता कैसे बन सकेगी ? यदि त्रिरूपताको सिद्धि के लिए विपक्षासत्त्वको पक्षधर्मत्व और सपक्षसत्त्वसे अतिरिक्त रूप माना जाता है, तो एक ही हेतु अनायास ही अनेकरूप-अनेकान्तात्मक सिद्ध हो जाता है। और यह अनेकान्तात्मक हेतु अनेकान्तात्मक साध्यके साथ ही अविनाभाव रखनेके कारण अनेकान्तका ही साधक होगा। इस तरह एकान्तके विरुद्ध अनेकान्तके अविनाभावी होनेके कारण अनेकान्तके ही साधक होनेसे सभी हेतु विरुद्ध हैं। ३९७. इसी तरह परवादियोंके सभी हेतु असिद्ध हैं । बताइए-आपके हेतु सामान्य रूप हैं, या विशेषरूप, या उभयात्मक अथवा इन सबसे विलक्षण अनुभय रूप ? यदि हेतु सामान्यरूप है, तो वह सकल पदार्थ व्यापी है या मात्र अपनी व्यक्तियों में ही रहता है ? जैसा भी हो, वह सामान्यरूप हेतु प्रत्यक्ष प्रमाणसे प्रसिद्ध है या अनुमानसे ? उसे प्रत्यक्ष सिद्ध तो नहीं कह सकते; क्योंकि प्रत्यक्ष तो इन्द्रियोंके अधीन है, और इन्द्रियोंका सन्निकर्ष नियतदेशवाली स्थूल व्यक्तियों तक ही सीमित है। इसलिए इन्द्रियोंके अनुसार चलनेवाला ज्ञान नियतदेश वर्तमानकाल तथा स्थूल पदार्थों में ही प्रवृत्ति कर सकता है। उसमें सकलदेश तथा त्रिकालवर्ती व्यक्तियोंमें रहनेवाले सामान्यको जाननेको शक्ति नहीं है। ६३९८. शंका-जो सामान्य नियतदेशवाली व्यक्तियोंमें रहता है वही तो दूर देश तथा अतीतादिकालवर्ती व्यक्तियोंमें पाया जाता है। अतः नियत देशमें उसका प्रत्यक्ष होनेसे उसके दूर देश और अतीतादिकालवर्ती व्यक्तियोंमें रहनेवाले स्वरूपका भी प्रत्यक्ष हो ही जाता है। समाधान-यदि सामान्य नियतदेशवर्ती व्यक्तियोंमें रहनेवाले सामान्यसे सर्वथा अभिन्न है, तो फिर वह भी नियतदेशवाला ही हो जायगा । ऐसी हालतमें वह सर्वव्यापी या सर्वस्वव्यक्तिव्यापी नहीं रह सकेगा। इस तरह व्यापी सामान्य रूप हेतु प्रत्यक्षसिद्ध तो नहीं है। उसे अनुमानसिद्ध माननेमें तो अनवस्था राक्षसी तुम्हारे पक्षको खा जायेगी। जो अनुमान सामान्यको सिद्ध करनेके लिए तैयार होगा वह लिंगज्ञान पूर्वक हो प्रवृत्ति करेगा। और लिंग विशेषरूप तो हो ही नहीं सकता; क्योंकि विशेषका तो दूसरी व्यक्तियोंमें अनुगम नहीं होता । अब रहा सामान्य १.-व निकृ-म.,.,प. १,२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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