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-का० ५७.६४०६] जैनमतम् ।
३८७ $ ४०५. किं च प्रतिबन्धः पक्षधर्मत्वादिके लिङ्गलक्षणे सति संभवी, न च साध्यसाधनयोः परस्परतो धर्मिणश्चैकान्तेन भेदेऽभेदे वा पक्षधर्मत्वादिधर्मयोगो लिङ्गस्योपपत्तिमान्, संबन्धासिद्धः।
६.४०६. संबन्धो हि साध्यसाधनयोधर्मिणश्च किं समवायः, संयोगः, विरोधः, विशेषणविशेष्य भावः, तादात्म्यं, तदुत्पत्तिर्वा भवेत् । न तावत्समवायः, तस्य धर्मर्मियातिरिक्तस्य प्रमाणेनाप्रतीयमानत्वात, इह तन्तुले पट इत्यादेस्तत्साधकस्य प्रत्ययस्यालौकिकत्वात, पांसुलपादानामपीह पटे तन्तवे इत्येवं प्रतीतिदर्शनात, इह भूतले घटाभाव इत्यत्रापि समवायप्रसङ्गात् । सत्त्वे वा • समवायस्य स्वत एव धर्मधादिषु वृत्त्यभ्युपगमे तद्वत्साध्यादिधर्माणामपि स्वत एव धर्मिणि
वृत्तिरस्तु किं व्यर्थया समवायकल्पनया। समवायस्य समवायान्तरेण वृत्त्यभ्युपगमे तु तत्राप्यपरसमवायकल्पनेऽनवस्थानदी दुस्तरा। अस्तु समवायस्य स्वतः परतो वा वृत्तिः, तथापि तस्य प्रतिनियतानामेव संबन्धिनां संबन्धकत्वं न स्यात्, अपि त्वन्येषामपि व्यापकत्वेन, तस्य सर्वत्र तुल्यत्वा. देकस्वभावत्वाच्च।
है ? और यदि इस नये अगृहीत सम्बन्धवाले पदार्थको हेतु बनाया जायेगा तो वह अनैकान्तिक हो जायेगा।
६४०५: जब हेतुका पक्षमें रहना आदि सिद्ध हो तभी अविनाभाव सम्बन्ध बन सकता है। परन्तु साध्य-साधन और धर्मीमें सर्वथा भेद माननेपर तो पक्ष आदिका स्वरूप ही नहीं बन पाता, उनमें सर्वथा अभेद माननेसे कोई एक पदार्थ ही बचेगा। एक पदार्थमें तो धर्मधर्मभावका होना असम्भव ही है। इस तरह धर्मी साध्य और साधनका सम्बन्ध न होनेके कारण हेतुके पक्षधर्मत्व आदि रूपोंकी सिद्धि नहीं हो सकती।
६४०६. आप ही बताइए कि-धर्मी साध्य और साधनमें कौन-सा सम्बन्ध होगा? उनमें समवाय माना जाय, या संयोग, अथवा विरोध, किंवा विशेषणविशेष्यभाव, या तादात्म्य या तदुत्पत्ति ? साध्यधर्म और पर्वतादिधर्मों में समवाय सम्बन्ध तो नहीं माना जा सकता, क्योंकि धर्म और धर्मीको छोड़कर उन दोनों में रहनेवाला कोई तीसरा सम्बन्ध किसी भी प्रमाणसे अनुभवमें नहीं आता। 'यदि यह धर्म है, यह धर्मी है और यह उनका समवाय हैं' इस तरह समवायका धर्म और धर्मीसे भिन्न प्रतिभास होता तो उसकी सत्ता मानी जा सकती थी। पर उसका अनुभव ही नहीं होता । 'इन तन्तुओंमें कपड़ा है' इत्यादि इहेदंप्रत्यय, जो समवायकी सिद्धिके लिए पेश किये जाते हैं, वे सचमुचमें अलौकिक ही हैं। नंगे पैर चलनेवाले गांवड़ेके किसान भी 'कपड़ेमें तन्तु हैं' यही कहते हैं न कि तन्तुओं में कपड़ा। यदि 'इहेर्द' प्रत्ययसे ही समवायकी सिद्धि होती हो; तो 'इस पृथिवीमें घड़ेका अभाव है' इस प्रत्ययसे भी भूतल और घटाभावमें समवायकी सिद्धि हो जानी चाहिए । समवायकी सत्ता मान भी ली जाय परन्तु वह धर्म और धर्मीमें यदि दूसरे सम्बन्धके बिना ही अपने-आप रह जाता है; तो समवायकी तरह साध्य आदि धर्मोकी ही अपने धर्मीमें स्वतः वृत्ति मान लेनी चाहिए, व्यर्थ ही उनमें समवायकी कल्पना करनेसे क्या फायदा है ? यदि समवाय अन्य किसी दूसरे समवायसे धर्म और धर्मी में रहता है तो वह समवाय भी अपने सम्बन्धियोंमें किसी तीसरे समवायसे रहेगा, तीसरा भी चौथेसे, इस तरह अनेकों समवायोंकी कल्पना करनेसे अनवस्था नामका दूषण होगा। इस अनवस्था नदीका तैरना कठिन हो जायेगा। अस्तु समवायकी स्वतः या परतः किसी भी रूपसे वृत्ति मान भी ली जाय तो भी 'वह अमुक सम्बन्धियोंमें हो सम्बन्ध कराता है' यह नियम करना कठिन है। समवाय नित्य व्यापक और एकस्वभाववाला है, अतः उसे तन्तुका पटको तरह घटमें भी समवाय करा देना चाहिए।
१. इत्येव प्रती-भ. १, प. १, २ ।
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